कुर्मूला (सफेद गिडार/व्हाइट ग्रब) भारत में एक प्रमुख हानिकारक कीट है, जो हिमाचल प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में बहुतायत में पाया जाता है. यह कीट मौसम और फसल की उपलब्धता के अनुसार काफी हानि पहुँचाता है, खासकर मानसून के दौरान यह सर्वाधिक क्षति पहुँचाने वाला होता है. भारत में यह कीट पर्वतीय और मैदानी दोनों क्षेत्रों में फसलों को नुकसान पहुँचाता है. विभिन्न राज्यों में अत्यधिक हानि पहुँचाने के कारण इसे उत्तराखंड जैसे कई राज्यों में राजकीय/राज्य कीट का दर्जा भी दिया गया है. पर्वतीय क्षेत्रों में यह वर्षा आधारित विभिन्न फसलों में 20 से 75 प्रतिशत तक की हानि पहुँचाता है, जबकि मैदानी क्षेत्रों में यह 90 प्रतिशत तक का नुकसान पहुँचा सकता है. इस कीट को एकीकृत कीट नियंत्रण प्रणाली से नियंत्रित किया जा सकता है.
कुर्मूला कीट को विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है. इसके गिडार (ग्रब) को कुर्मूला सफेद गिडार और घोलुवा कीट आदि नामों से जाना जाता है. अंग्रेजी में इसे व्हाइट ग्रब (White Grub) के नाम से जाना जाता है.
कुर्मूला कीट का जीवनचक्र और क्षति के लक्षण: कुर्मूला कीट के वयस्क मानसून में पहली बरसात के बाद जमीन से बाहर निकलकर फसलों/पौधों पर एकत्रित होकर प्रजनन करते हैं. प्रजनन के तुरंत बाद मादा जमीन के अंदर (20-25 सेंटीमीटर) जाकर अंडे देती है. अंडों से निकले कुर्मूला (ग्रब) सफेद रंग के होते हैं और उनका मुँह गहरे भूरे रंग का होता है. इनकी आकृति अंग्रेजी के 'C' अक्षर के समान होती है.
ग्रब अवस्था जून-जुलाई (मानसून) से लेकर अक्टूबर तक सक्रिय रहकर अपने नुकीले चबाने वाले मुखांगों से विभिन्न फसलों की जड़ों को काटकर पौधों में मृदा के पोषक तत्वों तथा जल के प्रवाह तंत्र को पूर्ण रूप से अवरुद्ध कर देते हैं. इससे उस पौधे की मृत्यु हो जाती है और किसान की आय में भारी गिरावट आती है. प्रायः यह देखा गया है कि कुर्मूला कीट का उचित नियंत्रण न करने पर उत्पादन में भारी कमी या शत प्रतिशत का नुकसान भी होता है.
जीवनचक्र: कुर्मूला कीट का वयस्क भूरे रंग का होता है, जो जून-जुलाई की बरसात के तुरंत बाद सायंकालीन समय में मृदा से निकलकर पोषक पौधों की कोमल पत्तियों या टहनियों पर एकत्र होते हैं. नर और मादा 15-20 मिनट तक प्रजनन करने के बाद पोषक पौधों जैसे अखरोट, अनार, सेब, खुमानी, नाशपाती की पत्तियों को खाते हैं. मध्यरात्रि के बाद तथा सुबह से पहले वयस्क पुनः मृदा के अंदर चले जाते हैं, जहाँ वयस्क मादा प्रजनन के 4-6 दिनों के बाद मृदा में 7-9 सेंटीमीटर की गहराई पर 10-40 सफेद, गोलाकार अंडे देती है, जो इकट्ठा न होकर अलग-अलग बिखरे रहते हैं. ये अंडे लगभग 7-10 दिनों में फूटते हैं, जिसमें से सफेद-पीले रंग के प्रथम अवस्था के ग्रब (गिडार) निकलते हैं, जिनकी लंबाई 7-8 मिमी तक होती है.
प्रथम अवस्था के गिडार के मुखांग अधिक विकसित नहीं होते हैं, जिससे ये केवल पौधों की कोमल जड़ों तथा मृदा के कार्बनिक पदार्थों का सेवन कर 40-45 दिनों में द्वितीय अवस्था में पहुँचते हैं तथा द्वितीय अवस्था के 30-45 दिनों के पश्चात ये गिडार तृतीय अवस्था में पहुँचते हैं. तृतीय अवस्था में इनकी लंबाई 40 मिमी तक होती है. द्वितीय एवं तृतीय अवस्था के गिडार अपने काटने एवं चबाने वाले नुकीले मुखांगों से गेहूं, गोभी, सरसों, मिर्च, राई, मंडुआ, झंगोरा की जड़ों को काटकर पौधे के सतत विकास को रोक देते हैं, जिससे पौधे पीले पड़कर सूख जाते हैं.
तृतीय अवस्था के पश्चात ये गिडार 60 सेंटीमीटर नीचे जाकर सुषुप्तावस्था में चले जाते हैं. प्रथम अवस्था से तृतीय अवस्था तक गिडार की कुल समयावधि 215-265 दिनों की होती है. सुषुप्तावस्था के बाद गिडार मार्च-अप्रैल माह के मध्य में 15-20 सेंटीमीटर की गहराई पर आकर प्यूपा अवस्था में परिवर्तित हो जाता है. प्यूपा अवस्था एक निष्क्रिय अवस्था है, जिसमें कीट कोई गतिविधि नहीं करता है तथा न ही पौधों को कोई नुकसान पहुँचाता है. यह कीट प्यूपा अवस्था में 30 दिनों तक रहता है. प्यूपा के बाद अनुकूल वातावरण मिलने पर यह वयस्क में परिवर्तित हो जाता है. इसमें वयस्क की लंबाई एवं चौड़ाई क्रमशः 20-25 मिमी तथा 10-15 मिमी तक होती है. इस कीट का जीवनकाल एक वर्ष का होता है.
क्षति के लक्षण: कुर्मूला कीट की गिडार (ग्रब) अवस्था फसल को सर्वाधिक नुकसान पहुँचाती है. यह कीट जुलाई से अक्टूबर में सर्वाधिक नुकसान पहुँचाता है. इस कीट की प्रथम अवस्था फसल की मुलायम जड़ों पर भक्षण करती है, परंतु मुलायम जड़ों की अनुपस्थिति में मृदा के कार्बनिक पदार्थों पर आहार करके द्वितीय अवस्था में पहुँचती है. इस अवस्था में गिडार के मुखांग काफी अधिक विकसित हो जाते हैं.
द्वितीय एवं तृतीय अवस्था के गिडार सर्वाधिक सक्रिय रहते हैं तथा अपने नुकीले दाँतों से पौधों/फसलों की जड़ों पर भक्षण करते हैं. इससे पौधों में पौष्टिक पदार्थों के सुचारू परिवहन न होने के कारण पौधे पीले पड़ने लगते हैं तथा कुछ समय पश्चात पौधे पूर्ण रूप से सूख जाते हैं. अगर क्षतिग्रस्त पौधे को कम बल प्रयोग कर हाथ से खींचा जाए, तो जड़ों के कुर्मूला कीट द्वारा काटे जाने के कारण जड़ विहीन पौधा आसानी से हाथ में आ जाता है. कुर्मूला कीट का अत्यधिक प्रकोप होने के कारण कभी-कभी ग्रब या गिडार भी पौधे के साथ ऊपर आ जाते हैं.
बहुभक्षी वयस्क रात्रिचर होने के कारण रात में विभिन्न फलों जैसे खुमानी, प्लम, सेब, अखरोट और फूलों जैसे जीनिया, गुलाब, डहेलिया तथा वन पौधों जैसे बांज, तुन, भिमल के फलों तथा पत्तियों को काटने का कार्य करते हैं. वयस्क बहुभक्षी होने के कारण केवल पूर्ण रूप से पके फलों तथा प्रायः पत्तियों को नुकसान पहुँचाते हैं. इनके द्वारा लगभग सभी फलों, सब्जियों इत्यादि का भक्षण किया जाता है, अर्थात बहुभक्षी प्रकृति के होने के कारण इनके द्वारा फसल उत्पादन एवं आय को काफी अधिक नुकसान होता है.
प्रबंधन
- शारीरिक नियंत्रण: वयस्क जब बरसात के बाद प्रजनन हेतु पौधों की पत्तियों पर एकत्रित होते हैं, उस समय पौधों के नीचे किसी तिरपाल को रखकर उस वृक्ष को जोर से हिलाकर सभी कीटों को तिरपाल में एकत्र कर नष्ट करना चाहिए.
- खाद का प्रयोग: खेतों में सूखे अथवा पूर्ण विघटित गोबर का ही प्रयोग करना चाहिए. कच्चे गोबर का प्रयोग कभी नहीं करना चाहिए, क्योंकि कुर्मूला कीट के प्रथम अवस्था के गिडार कच्चे गोबर पर भक्षण करते हैं.
- खेतों की जुताई: ग्रब की प्रथम, द्वितीय, तृतीय अवस्था मृदा में रहती है. ग्रब का शरीर अत्यधिक कोमल होने के कारण यह सूर्य की किरणों की गर्मी को सहन नहीं कर पाता है, इसलिए ग्रीष्मकालीन समय में खेतों की गहरी जुताई करने से ग्रब सूर्य के प्रकाश तथा चिड़ियों का शिकार हो जाता है.
- प्रकाश प्रपंच: वयस्क रात्रिचर होने के कारण प्रकाश प्रपंच की ओर आकर्षित होता है, इसलिए खेतों में प्रकाश प्रपंच का उपयोग करना चाहिए. ग्रामीण क्षेत्रों में घर के बाहर जल रहे प्रकाश स्रोतों या बल्बों पर आए हुए बीटल्स को एकत्र कर नष्ट कर देना चाहिए.
- हस्त संग्रह: मानसून के बाद होने वाली सस्य क्रियाओं जैसे निंदाई-गुड़ाई करते समय अत्यधिक संख्या में ग्रब मिलते हैं. इन्हें एक पात्र में एकत्रित कर नष्ट कर देना चाहिए.
- फसल चयन: जिन क्षेत्रों में कुर्मूला कीट द्वारा काफी अधिक हानि होती है, वहाँ पर सोयाबीन या रामदाना आदि की बुवाई करना कृषक के हित में लाभदायक सिद्ध होता है. इन फसलों में कुर्मूला कीट की क्षति का स्तर काफी कम होता है.
- जैविक नियंत्रण: मेटाहाइजियम एनिसोप्ली तथा ब्यूवेरिया बेसियाना एक कीटरोगाणुजनक कवक/फफूंद है. इसके 1.0×10^{14} कोनिडिया प्रति ग्राम वाले फॉर्मूलेशन का 3.0 ग्राम प्रति वर्गमीटर की दर से प्रयोग करने पर कीट की संख्या में काफी कमी आती है. 24 डिग्री सेल्सियस से 28 डिग्री सेल्सियस और उच्च सापेक्ष आर्द्रता इस कवक के गुणन के लिए अनुकूल तापमान होता है. कीट के नियंत्रण के लिए कीटरोगाणुजनक कवक/फफूंद को मृदा में शाम के समय मिश्रित करना चाहिए.
- रासायनिक नियंत्रण: बुवाई से पूर्व खेत में इमिडाक्लोप्रिड 200 एसएल (Imidacloprid 200 SL) कीटनाशक को 0.048 किलोग्राम सक्रिय तत्व की मात्रा को प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने से ग्रब प्रभावी तरीके से नियंत्रण हो जाता है.
- बीजोपचार के लिए क्लोरपायरीफॉस 20 ईसी (Chlorpyriphos 20 EC) के 7 से 12 मिलीलीटर को 1 किलोग्राम खरीफ फसल के बीजों के लिए उपयुक्त है.
- इसी प्रकार सोयाबीन तथा अन्य खरीफ फसलों में ग्रब के नियंत्रण के लिए थियामेथोक्साम 25 डब्ल्यूएस (Thiamethoxam 25 WS) नामक कीटनाशी का 1.2 लीटर मात्रा का प्रयोग प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करना चाहिए.
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