भारत में पशुओं के नवजात शिशुओं में मृत्यु दर 60 प्रतिशत से अधिक होती है। अगर इनकी देखभाल समय से न हो तो यह दर और अधिक हो सकती है। अच्छे व स्वस्थ नवजात शिशु तभी पैदा होंगे, जब गाय अच्छी नस्ल की, स्वस्थ तथा अच्छे बैल से क्रॉस की गई हो। यदि पशुपालक इस पर ध्यान नहीं देते हैं, तो उन्हें दुर्बल और कमजोर तथा कम उत्पादकता के शिशु प्राप्त होंगे एवं विभिन्न कारणों से इन शिशुओं की मृत्यु हो जाती है। अतः पालकों को गाय को क्रॉस करने से लेकर शावक के जन्म के 6 माह तक अच्छा रखरखाव करना चाहिए।
नवजात पशुओं की देखभाल अच्छी तरह करना जरूरी है। शिशु के जन्म से लेकर हर कदम पर विशेष देखभाल की जरूरत होती है। पशुपालकों के लिए पशु शिशुओं की देखभाल करने हेतु महत्वपूर्ण सिफारिशें इस प्रकार हैं:
बछड़ों की सफाई: नवजात के पैदा होने के तुरंत बाद ही उसे भूसे की बोरी या जूट की बोरी से सही से साफ कर देना चाहिए। इसके आंख, नाक, कान तथा जनन अंगों को भी अच्छे से साफ करना चाहिए। इससे नवजात को देखने और सांस लेने जैसी सामान्य क्रिया करने में परेशानी नहीं होती है।
साफ करने के बाद नवजात को उसकी मां के सामने रखना चाहिए। इससे गाय शिशु को चाटकर साफ कर देती है। यदि कोई गाय अपने नवजात को नहीं चाट रही है, तो नवजात के ऊपर हल्का सेंधा नमक डाल देना चाहिए और गाय को चाटने देना चाहिए।
श्वास प्रक्रिया की जांच करना: कभी-कभी नवजात शिशु की नाक में गंदगी जमी होने से एक झिल्ली बन जाती है। इससे नवजात को श्वास लेने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। जन्म के तुरंत बाद शिशु की नाक की सफाई कर देनी चाहिए तथा झिल्ली को हटा देना चाहिए।
कभी-कभी शिशु की श्वास रुक जाती है, ऐसे में नवजात को कृत्रिम विधि से श्वास देने का प्रबंधन करना चाहिए जैसे नवजात की जीभ को बाहर खींचना चाहिए तथा शिशु को जूट की बोरी पर लिटाकर उसके पैरों को आगे-पीछे खींचना चाहिए, सीने को थपथपाना चाहिए तथा नवजात को थोड़ा ऊपर उठाकर पटक देना चाहिए। इससे नवजात की श्वास प्रक्रिया को सामान्य किया जा सकता है।
नवजात की सूंड/नाल काटना: श्वास प्रक्रिया की जांच के बाद शिशु की नाल को साफ तथा तेज जीवाणुरहित कैंची से 7-10 सें.मी. छोड़ते हुए काट देना चाहिए। कटे हुए नाल पर टिंक्चर आयोडीन लगा देना चाहिए। यदि किसी कारणवश टिंक्चर आयोडीन न हो तो उसकी जगह सरसों के तेल में देसी शराब मिलाकर लगाना चाहिए। नाल पर कीटाणु का प्रभाव अधिक होता है। अतः नाल का उपरोक्त दवाइयों से उपचार करना अति आवश्यक है। ऐसा 3 से 4 दिनों तक करना चाहिए। सामान्यतः सूंड/नाल 4 दिनों में सूख जाती है।
खुर साफ करना: नवजात शिशु में सामान्यतः स्वस्थ खुर जन्म के समय से ही होते हैं, परंतु कभी-कभी खुरों के बीच में फैटी बॉडीज जमा रहती हैं, जो पीले रंग की दिखती हैं। यह मृत रूप में होती है, इसमें खून का संचार नहीं होता है, इसे साफ तेज चाकू से काटकर हटा देना चाहिए, ताकि नवजात को अपने पैरों पर खड़ा होने में परेशानी न हो।
नवजात को खड़ा होने में सहायता देना: गाय का बछड़ा यदि स्वस्थ पैदा हुआ है, तो वह स्वतः पैदा होने के 20-25 मिनट बाद खड़ा होने लगता है। ऐसे समय में उसे खड़े होने में हल्के हाथों से सहायता करनी चाहिए। मगर शिशु को खड़ा करके उसे पकड़े नहीं रहना चाहिए अन्यथा उसके पैर कमजोर और नाजुक पड़ सकते हैं। नवजात को खड़ा करते ही छोड़ दें, वह गिरेगा और फिर उठने का प्रयास करेगा और इसी क्रम में स्वयं ही खड़ा होना सीख जाएगा। यदि नवजात किसी कारणवश खड़ा नहीं हो पा रहा है, तो नजदीकी पशु चिकित्सक से उसके पैरों से संबंधित जांच करवानी चाहिए।
प्रतिकूल मौसम से बचाव: यद्यपि भारत जैसे गर्म देश में शिशु को सर्दी लगने की आशंका कम ही होती है, फिर भी प्रतिकूल मौसम में नवजात शिशु की लू, गर्मी व अत्यधिक सर्दी से रक्षा करनी चाहिए। यदि नवजात का जन्म ठंड के माह में हुआ हो, तो ध्यान रखें कि गाय नवजात को अधिक समय तक न चाटे इससे उसे ठंड लग सकती है। सर्दी लगने से नवजात को ज्वर और निमोनिया हो सकता है। यदि उन दिनों अत्यधिक ठंड हो, तो पशु और नवजात दोनों को आग के पास खड़ा रखें, ताकि उनको ठंड से बचाया जा सके। लू और गर्मी से भी शिशु और गाय को बचाना अति आवश्यक है। अत्यधिक गर्मी होने पर पशुशाला में पंखे लगाने चाहिए। समय-समय पर ताजा पानी की व्यवस्था करनी चाहिए। ध्यान रहे पशुशाला में हवा का आवागमन बना रहे, जिसके लिए रोशनदान और खुला परिवेश होना चाहिए।
नवजात पशु में टीके लगवाना: जन्म से 6 माह की उम्र तक शिशु को मुंहपका तथा गलघोंटू आदि के टीके वर्षा ऋतु प्रारंभ होने से पहले लगवा देने चाहिए। यदि पूर्व में शिशु की मां को टीके लगे हैं, तो शिशु के जन्म से 6 माह तक शिशु पर इन टीकों का असर रहता है। तब इस प्रकार के टीके 6 माह के बाद भी वर्षा ऋतु से पहले लगवाए जा सकते हैं।
नवजात के रहन-सहन की व्यवस्था: नवजात शिशु को उसकी मां के पास ही रखना चाहिए। विशेष रूप से वर्षा ऋतु में नमी के संपर्क में आने से शिशुओं को बचाने के लिए जमीन से एक फीट ऊंचे लकड़ी के कटघरे में रखें। ध्यान रहे कि पशुशाला का निर्माण सूखे व ऊंचे स्थान पर हो जहां वर्षा के पानी का ठहराव न हो, निकास के लिए उचित नाली व्यवस्था होनी चाहिए। शेड की सफाई रोजाना होनी चाहिए, ताकि पशु को कीटों के प्रकोप से बचाया जा सके। ठंड के समय बंद कमरों में शिशुओं को रखना चाहिए, जिसमें नीचे भूसे की तथा पराली की बिछौने का प्रयोग करना चाहिए। पीने हेतु साफ पानी ही देना चाहिए। कभी-कभी शिशु आपस में एक-दूसरे का शरीर चाटने लगते हैं। इससे उनके पेट में बाल पहुंच जाते हैं, जिससे उन्हें खराब पाचन और दस्त जैसी समस्या हो जाती है। इससे बचने के लिए शिशु के मुंह में छिड़की/मुचका बांध देते हैं। ऐसा 6-10 दिनों तक करना चाहिए सामान्यतः नवजात 10 दिनों बाद ऐसा करना बंद कर देता है।
गर्मी के दिनों में नवजात को प्रतिदिन नहलाना और ब्रशिंग करना चाहिए। प्रतिदिन एक से दो घंटा व्यायाम भी करवाना चाहिए, ताकि नवजात शिशु की शारीरिक बढ़वार अच्छी हो। ध्यान रहे कि गौशाला के अंदर उचित वेंटिलेशन हो और वहां दीवारें ऊंची हो, ताकि जंगली पशुओं से उनका बचाव किया जा सके।
आहार व्यवस्था: जब बछड़ा 15 दिनों का हो जाए, तो उसे हरा नरम चारा जैसे बरसीम, लोबिया, लूसर्न आदि खिलाया जा सकता है। शिशु धीरे-धीरे हरे चारे को बड़े चाव से खाने लगते हैं, क्योंकि हरा चारा स्वादिष्ट होता है। इसके साथ ही 5 से 10 ग्राम नमक या अन्य खनिज मिश्रण शिशु के मुंह में सुबह-शाम डाल देना चाहिए, ताकि शिशु हरे चारे को शीघ्र पचा सके एवं उनके शरीर में खनिज लवणों की मात्रा पूरी की जा सके एवं उनकी हड्डियों को मजबूत किया जा सके। धीरे-धीरे सूखा चारा भी शिशुओं को खिलाना चाहिए। छोटे शिशुओं को सर्दियों में 3-4 बार ताजा पानी पिलाना चाहिए तथा गर्मियों में पांच से छह बार पानी पिलाना चाहिए। एक वर्ष तक के शिशु को प्रतिदिन 200 से 500 ग्राम दाना तथा एक से डेढ़ वर्ष तक के शिशुओं को 1 से 1.5 कि.ग्रा. दाना खिलाना चाहिए।
यदि किसी अन्य कारणवश शिशु रोगी हो जाए तो उसे नजदीकी पशु चिकित्सक को बुलाकर अवश्य दिखाएं, ताकि शिशु को गंभीर रोगों से बचाया जा सके।
शावक को दूध पीना सिखाना: गाय के ब्याने के ढाई से 3 घंटे बाद शिशु को पहला गाय का दूध पिलाना चाहिए। इसके लिए शिशु को मां के थनों के पास ले जाकर उसके मुंह पर दूध की धार मारते हैं। अपनी अंगुली में दूध लगाकर शिशु के मुंह में लगाते हैं। इस प्रकार जब शावक दूध को चाटेगा तो उसे दूध के स्वाद का ज्ञान होगा। अब शावक धीरे-धीरे अंगुली को चूसना शुरू करेगा। ऐसा करने पर अंगुली मुंह से निकालकर धीरे-धीरे थन से दूध की धार शिशु के मुंह में मारते रहें और कुछ देर बाद उस शिशु के मुंह में थन को दबा दें। ऐसा करने पर नवजात थन को दबाना शुरू करेगा, जिससे दूध उसके मुंह में जाएगा और वह दूध पीने की कला सीख जाएगा।
बछड़े को खीस पिलाना: गाय के ब्याने के 2 घंटे बाद ही अच्छे से सफाई कर शिशु को खीस पिलानी चाहिए। खीस पीने से शिशु में रोगों से प्रतिरोध की क्षमता आ जाती है। बहुत से पशुपालक पशु के जेर डालने का इंतजार करते हैं, जो सही नहीं है। कभी-कभी पशु जेर डालने में अत्यधिक समय लगा देते हैं। ऐसे में शिशु को ज्यादा देर भूखा नहीं रखा जा सकता। शिशु में एनीमिया होने की आशंका रहती है। नवजात शिशु का पहला आहार खीस ही होता है, शिशुओं को खीस पिलाना लाभदायक है। खीस में पाए जाने वाले मिनरल्स और विटामिन्स तथा रोग प्रतिरोधक लवण अच्छी मात्रा में पाए जाते हैं। खीस में साधारण दूध की तुलना में 5-6 गुना अधिक प्रोटीन पाया जाता है, जो नवजात के शरीर के बढ़वार के लिए अति आवश्यक है। खीस में लौह लवण सामान्य दूध की तुलना में 16 गुना अधिक पाया जाता है, जो नवजात में रक्त बनाने में सहायता करता है। खीस में कैरोटीन पाया जाता है, जिसे शिशु में आंखों के रोग और अंधापन नहीं होता। खीस में रोग प्रतिरोधक क्षमता तथा प्रतिकारिता जैसे औषधीय गुण पाए जाते हैं। इस प्रकार यह संपूर्ण दूध की तरह शिशु के लिए पूर्ण आहार होता है।
खीस देने में निम्न बातों को ध्यान में रखना बहुत आवश्यक है:
- नवजात के शारीरिक वजन के 1/10 ही खीस देनी चाहिए।
- नवजात के शारीरिक ताप के अनुसार ही खीस को गर्म कर देना चाहिए, जिससे ताप 100 से 102 डिग्री फारेनहाइट होना अच्छा माना जाता है। ठंडी खीस से दस्त होने की आशंका होती है।
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