शहरीकरण के बढ़ते स्तर और ग्रामीण इलाकों से लोगों के शहरों की ओर बढ़ते प्रवास ने शहरों के आसपास के क्षेत्रों में कृषि की बढ़ती आवश्यकता को जन्म दिया है। अर्ध-शहरी या पेरि-अर्बन खेती इसी संदर्भ में महत्वपूर्ण हो गई है। यह खेती शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच एक कड़ी के रूप में उभरती है, जहाँ कृषि उत्पाद शहरी आबादी की बढ़ती मांग को पूरा करने में मदद करते हैं। यह प्रणाली न केवल आहार की आपूर्ति को संतुलित करती है, बल्कि पर्यावरणीय और सामाजिक लाभ भी प्रदान करती है। पेरि-अर्बन खेती का मुख्य उद्देश्य शहरी क्षेत्रों के आसपास के इलाकों में टिकाऊ कृषि प्रणालियों का विकास करना है, जिससे स्थानीय आबादी के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित हो सके और पर्यावरण संरक्षण को भी बढ़ावा मिल सके। यह प्रणाली खेती शहरों के आसपास की भूमि में होती है, जहाँ कृषि, औद्योगिक और आवासीय उपयोग के लिए भूमि की प्रतिस्पर्धा होती है। यह क्षेत्रीय खाद्य प्रणालियों को मजबूत करने, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने और शहरी विकास के दबाव को कम करने में मददगार हो सकती है।
अर्ध-शहरी (पेरि-अर्बन) खेती शहरीकरण और खाद्य सुरक्षा की चुनौतियों का समाधान करने का एक सशक्त माध्यम है। यह खेती शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में खाद्य उत्पादन को बढ़ावा देने, पर्यावरण संरक्षण को सुनिश्चित करने और सामुदायिक कल्याण को सुधारने का एक प्रभावी तरीका हो सकती है।
आर्थिक और सामाजिक लाभ शहरी खाद्य सुरक्षा: शहरों में बढ़ती जनसंख्या के कारण खाद्य सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा बनती जा रही है। पेरि-अर्बन खेती इस समस्या का समाधान प्रदान करती है। यह शहरी क्षेत्रों के आसपास ताजे और स्थानीय खाद्य उत्पादों की उपलब्धता सुनिश्चित करती है। इससे शहरी आबादी को स्थानीय स्तर पर उत्पादित और ताजे खाद्य उत्पाद आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। इसके अलावा, आपूर्ति श्रृंखला को छोटा करने से खाद्य अपशिष्ट में कमी आती है और आहार की गुणवत्ता भी बढ़ती है।
रोजगार के अवसर: पेरि-अर्बन खेती रोजगार के नए अवसर उत्पन्न करती है। इसमें न केवल कृषि से जुड़े रोजगार शामिल होते हैं, बल्कि इससे जुड़े अन्य क्षेत्र जैसे कि प्रसंस्करण, विपणन और वितरण के लिए भी नए अवसर उत्पन्न होते हैं। शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी एक बड़ी समस्या होती है। इस तरह की खेती स्थानीय युवाओं और बेरोजगारों को रोजगार प्रदान कर सकती है।
सामुदायिक विकास और स्वास्थ्य: पेरि-अर्बन खेती से जुड़े समुदायों को स्वास्थ्य संबंधी लाभ भी मिलते हैं। इस प्रणाली के अंतर्गत स्थानीय उत्पादन से ताजे और पौष्टिक खाद्य उत्पाद उपलब्ध होते हैं, जो शहरी क्षेत्रों में लोगों के स्वास्थ्य को सुधारते हैं। इसके अलावा, पेरि-अर्बन खेती सामुदायिक सहभागिता को बढ़ावा देती है, जहाँ लोग एकसाथ मिलकर खेती करते हैं और एक-दूसरे की मदद करते हैं। इससे सामाजिक बंधनों को मजबूत करने में मदद मिलती है।
खाद्य मूल्य स्थिरता: शहरी क्षेत्रों के आसपास ताजा उत्पादों की उपलब्धता से खाद्य कीमतों में स्थिरता बनी रहती है। दूर-दराज के क्षेत्रों से खाद्य उत्पाद लाने के लिए परिवहन की लागत और समय अधिक लगता है। इससे कीमतों में अस्थिरता आती है। पेरि-अर्बन खेती इस अस्थिरता को कम कर सकती है। यह प्रणाली शहरी उपभोक्ताओं को सस्ते और ताजा खाद्य उत्पाद प्रदान कर सकती है।
चुनौतियाँ और समाधान नीतिगत ध्यान की कमी: अभी भी कई नीति निर्माता पेरि-अर्बन खेती को गंभीरता से नहीं लेते हैं। इसे केवल एक शौक के रूप में देखते हैं, जबकि इसके लाभ कई हैं। इसे बढ़ावा देने के लिए उचित नीति और समर्थन की आवश्यकता है। सरकारों को इस दिशा में काम करना होगा और इसे कृषि और शहरी विकास की मुख्यधारा में लाना होगा।
भूमि उपयोग का दबाव: शहरों के तेजी से विस्तार के कारण पेरि-अर्बन क्षेत्रों में भूमि की उपलब्धता घटती जा रही है। भूमि के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है, खासकर आवासीय, औद्योगिक और कृषि उपयोग के लिए। इससे खेती के लिए उपलब्ध भूमि कम हो रही है। इसके समाधान के लिए शहरी योजनाकारों को भूमि उपयोग की रणनीतियों में बदलाव करना होगा और अर्ध-शहरी खेती के लिए विशेष क्षेत्रों का निर्धारण करना होगा।
जल संसाधनों का प्रबंधन: शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में जल संसाधनों की कमी एक बड़ी समस्या हो सकती है। खेती के लिए आवश्यक पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करना एक चुनौती हो सकती है, खासकर उन क्षेत्रों में जहाँ पानी की कमी होती है। इसके समाधान के लिए जल संरक्षण और पुनर्चक्रण की तकनीकों को अपनाना आवश्यक है।
भविष्य स्थानीय उत्पादन और खपत: भविष्य में पेरि-अर्बन खेती स्थानीय उत्पादन और खपत पर आधारित होगी। शहरों के पास खेती करने से न केवल खाद्य उत्पादों की गुणवत्ता में सुधार होगा, बल्कि पर्यावरण में सुधार और पोषण भी बरकरार रहेगा। इससे शहरी क्षेत्रों में लोगों को ताजा और पोषक आहार प्राप्त करने का अवसर मिलेगा।
स्मार्ट खेती: भविष्य में पेरि-अर्बन खेती को और अधिक कारगर बनाने के लिए स्मार्ट कृषि तकनीकों का उपयोग किया जा सकता है। इसमें ड्रोन, सेंसर और डेटा आधारित निर्णय लेने की प्रक्रिया शामिल होगी। इससे उत्पादकता बढ़ाने और जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन में भी मदद मिलेगी।
नीति और शासन: पेरि-अर्बन खेती को बढ़ावा देने के लिए नीतिगत समर्थन अत्यंत आवश्यक है। सरकारों को इस दिशा में पहल करनी चाहिए, ताकि किसानों को कृषि उपकरण, बीज और अन्य संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित हो सके। इसके अलावा, भूमि सुधार नीतियों के माध्यम से खेती के लिए उचित भूमि का प्रबंधन किया जाना चाहिए।
पर्यावरणीय लाभ
- कार्बन फुटप्रिंट में कमी: पेरि-अर्बन खेती का सबसे महत्वपूर्ण पर्यावरणीय लाभ यह है कि यह उत्पादों की आपूर्ति के लिए आवश्यक परिवहन की दूरी को कम करती है। शहरों के पास उत्पादन होने के कारण, ताजा खाद्य उत्पादों को दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों से लाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। इससे ईंधन की बचत होती है और कार्बन फुटप्रिंट में कमी आती है। इसके अलावा, यह ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को भी कम करती है। कम दूरी की परिवहन प्रक्रिया में कम ऊर्जा का उपयोग होता है।
- स्थानीय जलवायु सुधार: पेरि-अर्बन खेती के अंतर्गत शहरी क्षेत्रों के आसपास हरियाली और पौधों की संख्या बढ़ने से स्थानीय जलवायु में सुधार होता है। यह न केवल वायुमंडल में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करता है, बल्कि तापमान को भी नियंत्रित करता है। अध्ययन ये भी बताते हैं कि खेती से जुड़े क्षेत्र आसपास बढ़ते तापमान को कम कर सकते हैं। एक प्रकार का 'कूलिंग इफेक्ट' उत्पादित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, बेंगलुरु और चेन्नई जैसे शहरों में अर्ध-शहरी खेती से भूमि सतह के तापमान में कमी देखी गई है।
- मृदा का संरक्षण और जैव विविधता: पेरि-अर्बन खेती, यदि ठीक से की जाए, तो यह मृदा की गुणवत्ता में सुधार कर सकती है। जैविक खेती और सतत कृषि तकनीकों के उपयोग से मृदा की उर्वरता में वृद्धि की जा सकती है। इसके अलावा, यह खेती पारंपरिक कृषि प्रणालियों को पुनर्जीवित करने और स्थानीय पौधों और पशुओं की प्रजातियों को संरक्षित करने में मदद करती है। जैव विविधता में वृद्धि से न केवल पर्यावरण को फायदा होता है, बल्कि यह कृषि उत्पादकता को भी बढ़ाती है।
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