भारत में क्षेत्रफल तथा उत्पादन दोनों की दृष्टि से सरसों का तिलहनी फसलों में प्रमुख स्थान है। सरसों रबी की एक प्रमुख तिलहनी फसल है, जिसका भारतीय अर्थव्यवस्था में एक विशेष स्थान है। इसकी खेती मुख्य रूप से राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा एवं मध्य प्रदेश में की जाती है। सरसों किसानों के बीच बहुत लोकप्रिय फसल है। इससे कम सिंचाई एवं न्यूनतम लागत में दूसरी फसलों की अपेक्षा अधिक लाभ प्राप्त हो रहा है। इसकी खेती मिश्रित रूप से एवं दो फसलीय चक्र में आसानी से की जा सकती है। सरसों की उत्पादकता 1443 किग्रा/हेक्टेयर है।वातावरण के अनुकूल उत्पादन पद्धतियों में जैविक कृषि का एक महत्वपूर्ण स्थान है। जैविक उत्पादन पद्धति द्वारा खेती करने पर कृषि जलवायु अनुरूप एवं पर्यावरणीय स्थायित्व बना रहता है। जैविक खाद्य उत्पादों की मांग प्रतिवर्ष 20-25 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। भारत में सामान्यतः एवं प्राकृतिक रूप से ही एक बहुत बड़े भूभाग पर जैविक खेती होती है। अतः स्वाभाविक रूप से भारत, विश्व के जैविक खाद्य बाजार में एक प्रमुख आपूर्तिकर्ता की क्षमता रखता है। भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान, भोपाल में पिछले कुछ वर्षों से सरसों की जैविक खेती पर शोध कार्य प्रारंभ किया गया। इस शोध कार्य में पोषण प्रबंधन, उन्नत सस्य तकनीक तथा कीटों एवं रोगों की रोकथाम का विशेष ध्यान रखा गया। इस शोध से यह स्पष्ट हो गया है कि जैविक पद्धति द्वारा सरसों उत्पादन करके भरपूर उपज प्राप्त की जा सकती है।
सरसों आर्द्र एवं शुष्क दोनों ही प्रकार के गर्म इलाकों में भली प्रकार उगाई जा सकती है। अधिक तेल उत्पादन के लिए सरसों को ठंडा तापमान, साफ और खुला आसमान तथा पर्याप्त मृदा आर्द्रता की आवश्यकता होती है। सरसों उचित जल निकास वाली बलुई और दोमट मृदा में अच्छी उपज देती है। अत्यधिक अम्लीय एवं क्षारीय मृदा इसकी खेती हेतु उपयुक्त नहीं है। यद्यपि क्षारीय भूमि में उपयुक्त किस्म लेकर इसकी खेती की जा सकती है। जहां की भूमि क्षारीय है वहां प्रत्येक तीसरे वर्ष जिप्सम 5 टन/हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए।
किस्मों का चयन: प्रमुख रूप से सरसों की निम्न किस्मों को अगेती, सामान्य समय एवं देर से बुवाई वाले सिंचित, बारानी तथा लवणीय एवं क्षारीय क्षेत्रों में उपयुक्त पाया गया है:
- समय पर बुवाई-बारानी क्षेत्र के लिए अरावली, आरएच-819, गीता, आर. बी 50
- समय पर बुवाई-सिंचित क्षेत्र के लिए पूसा-जय किसान, रोहिणी, आरएच-30, बसंती, पूसा बोल्ड
- अगेती बुवाई वाली पूसा अग्रणी, क्रांति, पूसा महक, नरेंद्र अगेती राई-4
- देर से बुवाई वाली नव गोल्ड, शताब्दी, स्वर्ण जयंती
- लवणीय मृदा की किस्में सी.एस. 54, सी. एस. 52, नरेंद्र राई-1
सस्य क्रियाएं: पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और उसके बाद 1-2 जुताई कल्टीवेटर से करनी चाहिए। इसके बाद पाटा लगाकर खेत को भुरभुरा करना चाहिए। सरसों को बोने के लिए उपयुक्त समय सितंबर के अंतिम सप्ताह से अक्टूबर के अंतिम सप्ताह तक है। बुवाई के समय तापमान 26-30 डिग्री सेल्सियस हो, यदि अधिक हो तो बुवाई में देरी कर देनी चाहिए।
सरसों (बीज 4-5 किग्रा/हेक्टेयर) के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30-45 सेमी एवं पौधे से पौधे की दूरी 10 सेमी रखी जानी चाहिए। बीज को 2-2.5 सेमी से अधिक गहरा नहीं बोना चाहिए। वातावरण की नाइट्रोजन के प्रभावी स्थिरीकरण के लिए सरसों के बीजों को एजोस्पाइरिलम तथा फास्फोरस विलेयकारी जीवाणु कल्चर से 5-5 ग्राम किग्रा बीज की दर से उपयोग करना चाहिए।
फसलों को स्क्लेरोशिया गलन रोग के प्रकोप से बचाने के लिए लहसुन का 2 प्रतिशत अर्क बीजोपचार के लिए उपयुक्त पाया गया है। यह फसल सूखे के प्रति सहिष्णु होती है। पहली सिंचाई खेत की नमी, फसल की किस्म और मृदा प्रकार को ध्यान में रखते हुए 30-40 दिनों के बीच फूल बनने के समय एवं दूसरी सिंचाई 60-70 दिनों के बीच फली बनने पर करनी चाहिए।
जैविक खादों की मात्रा एवं प्रबंधन: जैविक खादों को बुवाई से 10-15 दिनों पूर्व ही खेत में बिखेरकर समान रूप से ऊपरी 15 सेमी गहराई तक अच्छी तरह से मिला देनी चाहिए। स्थानीय उपलब्धता के आधार पर उपरोक्त खादों में से कोई एक अथवा दो या तीन खादों को सम्मिलित रूप से उपयोग करें, जिससे कुल मिलाकर 60 किग्रा नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर मिले।
कीट एवं रोगों का प्रबंधन: सरसों की फसल में लगने वाले प्रमुख कीट आरा मक्खी, चितकबरा कीट, चेपा, लीफ माइनर एवं बिहार हेयरी कैटरपिलर हैं। इनसे बचाव के लिए सर्वप्रथम जिन पत्तियों पर यह प्रारंभिक अवस्था में झुंड में दिखें उन पत्तियों को तोड़कर जला देना चाहिए। कीटों के प्राकृतिक शत्रु जैसे लेडी बर्ड बीटल (कोक्सीनेला स्पीशीज), सिरफिड (सिरफिड स्पीशीज) माहूं आदि यदि खेत पर पर्याप्त मात्रा में हों, तो यह परजीवी स्वतः ही कीटों का नियंत्रण कर देते हैं। अन्यथा इन परजीवी कीटों के इंसेक्ट कार्ड 3-4 कार्ड/एकड़ की दर से रखकर कीटों का नियंत्रण किया जा सकता है। इसके साथ ही नीम का तेल एजाडाइरेक्टीन 0.03 प्रतिशत का 45 एवं 60 दिनों पर छिड़काव करने पर इन कीटों का प्रकोप नहीं होता है। सरसों के प्रमुख रोगों में पर्ण चित्ती, सफेद रतुआ, आसिता तथा तना गलन है। फसल की बुवाई के समय 5 किग्रा/हेक्टेयर की दर से ट्राइकोडर्मा विरिडी को जैविक खाद के साथ उपयोग करने पर गलन आदि रोग नहीं आते हैं। इसके साथ ही लहसुन का 2 प्रतिशत अर्क बीजोपचार के समय उपयोग तथा साथ ही बुवाई के 50 दिनों एवं 70 दिनों बाद भी एक लीटर/ हेक्टेयर की दर से लहसुन के 2 प्रतिशत अर्क का छिड़काव करना चाहिए। रोकथाम का सबसे अच्छा तरीका समय पर बुवाई (15-25 अक्टूबर के बीच) तथा स्वस्थ, स्वच्छ एवं प्रमाणित बीजों का उपयोग करना है।
उपज एवं गुणवत्ता पर प्रभाव: भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान, भोपाल में पिछले कुछ वर्षों (वर्ष 2013 2014 से लेकर 2023-2024) से सरसों की जैविक खेती पर किए गए अनुसंधान से पता लगता है कि रासायनिक खेती की तुलना में जैविक खेती के अंतर्गत सरसों की उपज में बढ़ोत्तरी हुई है।
उसी प्रकार सरसों के पोषण गुणवत्ता मानकों (प्रोटीन, फिनोल, ग्लूकोसिनोलेट) में भी जैविक खेती के अंतर्गत बढ़ोत्तरी हुई है। सरसों की कटाई के बाद मृदा के नमूने लिए गए जिनका विश्लेषण करने पर प्राप्त हुआ कि जैविक खाद के उपयोग से मृदा में कार्बनिक कार्बन की मात्रा के साथ-साथ उपलब्ध फास्फोरस एवं पोटाश की मात्रा में वृद्धि पाई गई। यदि जैविक पद्धति से सरसों की खेती की जाए, तो मृदा स्वास्थ्य के साथ-साथ उत्पादन की भी बढ़ोत्तरी पाई जा सकती है। यदि किसान अपने उपलब्ध संसाधनों का प्रयोग करके जैविक खेती करें तो निश्चित ही किसानों को ज्यादा लाभ प्राप्त होगा।
जैविक खेती के फायदे:
- जैविक खेती पर्यावरण के अनुकूल है। इसके साथ ही संसाधनों का उपयोग कम करना, पुन: उपयोग और पुनरावृत्ति करने को भी बढ़ावा मिलता है।
- जैविक खादों तथा कीटों एवं रोगों की रोकथाम में काम आने वाले उत्पादों का उत्पादन किसान अपने खेत पर ही कर सकते हैं, जिससे उत्पादन लागत में कमी हो जाती है।
- जैविक कृषि में कचरे के उचित प्रबंधन द्वारा प्राकृतिक संतुलन बना रहता है।
- मृदा में कार्बनिक कार्बन एवं उर्वरता में सुधार होता है।
- सरसों की पत्तियां झड़कर खेत की मृदा में मिल जाती हैं और मृदा की उर्वरक शक्ति को बढ़ा देती हैं।
- मृदा में उपस्थित विभिन्न लाभदायक जीवों की क्रियाशीलता बढ़ जाती है।
- जैविक खेती करने पर मृदा के पोषण को भी बढ़ावा मिलता है। इसके कारण मृदा के भौतिक, रासायनिक, जैविक गुणों में सुधार होता है।
- मृदा की जलधारण क्षमता बढ़ जाती है।"
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