अरहर एक महत्वपूर्ण दलहनी फसल है, जिसे सीमित संसाधनों में आसानी से उगाया जा सकता है वर्षाश्रित पर्वतीय क्षेत्रों में कम उपजाऊ भूमि में छोटे एवं सीमांत किसानों के लिए अरहर की खेती लाभदायी साबित हो सकती है। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में अरहर की खेती को बढ़ावा देने के लिए अतिशीघ्र परिपक्वता वाली किस्मों का विकास और उनके परीक्षण पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है, ताकि ये किस्में न केवल कम समय में तैयार हो जाएं, बल्कि जलवायु परिवर्तन जैसी चुनौतियों के बीच टिकाऊ कृषि प्रणाली को भी सशक्त बनाने में मददगार बन सकें। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र, भौगोलिक एवं जलवायुवीय विविधता से भरे हुए हैं। अतः इस क्षेत्र विशेष के लिए उपयुक्त किस्मों के चयन हेतु कृषकों की भागीदारी भी बहुत आवश्यक है, ताकि कृषक अपनी आवश्यकताओं एवं अनुभव के आधार पर किस्मों का चयन कर सकें। किसान सहभागिता को केंद्र में रखते हुए अरहर की शीघ्र एवं अतिशीघ्र प्रविष्टियों का मूल्यांकन किया गया। चयन प्रक्रिया में कृषकों ने उच्च उपजशीलता के साथ-साथ, अतिशीघ्र परिपक्वता/कम अवधि, नियमित बढ़वार, पौधे की कम ऊंचाई, समकालीन परिपक्वता, पूरे खेत की आसान दृश्यता आदि गुणों को प्राथमिकता दी। इस प्रकार के गुणों वाली किस्में मौजूदा फसल प्रणाली में आसानी से समायोजित हो सकती हैं। ये जंगली पशुओं से सुरक्षा की दृष्टि से भी उपयुक्त हैं। अतिशीघ्र परिपक्वता वाली अरहर का विकास पर्वतीय क्षेत्रों में टिकाऊ कृषि प्रणाली और खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। ये प्रयास पर्वतीय कृषकों की आजीविका को सशक्त बनाने के अलावा इस क्षेत्र में अरहर की खेती को व्यावसायिक दृष्टिकोण से भी नई ऊंचाई पर ले जाने में सहायक सिद्ध होंगे।
अरहर एक महत्वपूर्ण फसल है, जो भारत में शाकाहारी जनसंख्या हेतु प्रोटीन का एक प्रमुख स्रोत है। उत्कृष्ट पोषण, बढ़ती मांग एवं उच्च बाजार मूल्य के कारण यह भारत में प्रमुख दलहनी फसलों में से एक है तथा कृषकों के लिए व्यावसायिक स्तर पर बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह प्रोटीन, फाइबर, खनिज और कार्बोहाइड्रेट का एक समृद्ध स्रोत है। इसके साथ ही इसकी नाइट्रोजन संग्रहण क्षमता मृदा की उर्वरक शक्ति बढ़ाती है।
अरहर में प्रति इकाई क्षेत्रफल में 235 किग्रा प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन स्थिरीकरण की क्षमता है, जिसमें से 40 किग्रा नाइट्रोजन आगामी फसल के लिए शेष रह जाती है। इसकी गहरी जड़ मृदा कटाव को रोकने एवं जल को सोखने में सहायक होती है। सूखे के प्रति सहनशील होने के कारण कठिन जलवायु परिस्थितियों में भी यह अच्छी पैदावार देती है। इसके अलावा, अरहर की पत्तियां चारे के रूप में भी उपयोगी हैं। यह घरेलू ईंधन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है साथ ही इसके तने की लकड़ी छप्पर एवं अस्थाई बाड़ बनाने के काम आती है। इसकी शाखाओं का टोकरी बनाने तथा फलों एवं सब्जियों की पैकेजिंग सामग्री के रूप में उपयोग किया जा सकता है। वर्तमान में यह दलहन फसल देशभर में करीब 4.7 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल में उगाई जा रही है, जिससे 4.3 मिलियन टन का उत्पादन प्राप्त होता है। देशभर में दलहन उत्पादन बढ़ाने हेतु इस दलहन के न्यूनतम समर्थन मूल्य में भी विगत वर्षों (5,050/क्विंटल रुपये वर्ष 2016-17 के दौरान) की तुलना में (7,550/क्विंटल रुपये वर्ष 2024-25 के दौरान) करीब 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अरहर का महत्वपूर्ण स्थान है। यह देश के लाखों किसानों के लिए आजीविका का स्रोत है और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने में सहायक है। जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों के बीच, अरहर टिकाऊ कृषि और पर्यावरण संरक्षण के लिए आदर्श समाधान है।
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में अरहर उत्पादन: उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में अरहर पारंपरिक रूप से उगाई जाने वाली दलहन फसलों में से एक है। इसे यहां पर 'तोर' के नाम से जाना जाता है। यहां पर पारंपरिक प्रजातियां काफी लंबी अवधि वाली बहुवर्षीय प्रकार की हैं।
पर्वतीय क्षेत्रों में कम अवधि वाली अरहर की प्रजातियों की अनुपलब्धता के कारण पर्वतीय राज्यों में अरहर का उत्पादन काफी कम है, एवं अन्य राज्यों से मंगवाकर ही इस दलहन की आपूर्ति सुनिश्चित की जाती है। उत्तराखंड में अन्य पारंपरिक दलहन फसलों की अपेक्षा अरहर के अंतर्गत काफी कम क्षेत्रफल (3-4 हजार हेक्टेयर) है।
वर्तमान में उत्तराखंड में अरहर केवल सीमित क्षेत्रफल में ही उगाई जाती है। इसका मुख्य कारण पर्वतीय क्षेत्रों में प्रचलित फसल प्रणाली के अनुकूल किस्मों का अभाव है। अतः इसे कृषकों द्वारा प्रायः खेतों की मेड़ों पर या अन्य किसी खाली पड़ी हुई जमीन पर ही उगाया जाता है, एवं इसे एकल फसल के रूप में सामान्यतः नहीं उगाया जाता है।
पर्वतीय राज्यों में अरहर के विस्तार एवं कृषकों के लिए लाभप्रद बनाने हेतु कम अवधि वाली प्रजातियों का कृषि प्रणाली में समावेश की अत्यधिक संभावनाएं हैं, एवं पर्वतीय क्षेत्रों की वर्षाश्रित एवं जैविक कृषि हेतु भी यह काफी अनुकूल फसल है। साथ ही कम उपजाऊ, कंकरीली एवं पथरीली जमीन पर भी यह आसानी से उग सकती है। पर्वतीय राज्य उत्तराखंड में अरहर के क्षेत्रफल एवं उत्पादन बढ़ाने की दिशा में विगत वर्षों में काफी प्रयास किए गए। इसके लिए अरहर की ऐसी उन्नत प्रजातियों के विकास पर जोर दिया गया, जो उच्च उत्पादन क्षमता के साथ-साथ कम अवधि वाली हों साथ ही रोग एवं कीट रोधी भी हों।
विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, अल्मोड़ा द्वारा वर्ष 2007 में अरहर की कम अवधि (130 135 दिनों) की प्रजाति वीएल-अरहर 1 का विकास किया गया। यह अनियमित बढ़वार वाली, लंबी (1.5-2.0 मीटर) ऊंचाई वाली प्रजाति है। इसकी उच्च उपजशीलता (18-20 क्विंटल/हेक्टेयर), म्लानि प्रतिरोधकता के साथ-साथ वर्षाश्रित एवं जैविक अवस्थाओं के प्रति अनुकूलता ने मध्यम ऊंचाई वाले पर्वतीय क्षेत्रों में अरहर उत्पादन को बढ़ावा दिया है।
कृषक सहभागिता द्वारा अरहर प्रजातियों का चयन: नामित प्रविष्टियों के मूल्यांकन एवं चयन हेतु उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के 17 गांवों के कुल 69 अरहर उगाने वाले कृषकों (39 पुरुष और 30 महिला) को भी शामिल किया गया, ताकि पर्वतीय क्षेत्रों में अरहर की फसल के प्रति कृषकों के रुझान को समझा जा सके तथा नई अतिशीघ्र उच्च उपजशील, नियमित बढ़वार (बौनी) एवं अनियमित बढ़वार वाली मध्यम ऊंचाई की अरहर के प्रति कृषकों के दृष्टिकोण के विषय में जानकारी प्राप्त हो सके।
सहभागी प्रजाति चयन प्रक्रिया के माध्यम से किसानों को उनकी जरूरतों के अनुरूप फसल प्रजातियों का चयन करने में सहभागिता की, ताकि उनके द्वारा चयनित प्रजातियां, पर्वतीय क्षेत्रों की कृषि प्रणाली में समायोजित होकर सतत तथा लाभकारी कृषि प्रणाली की दिशा में एक मजबूत कदम उठाया जा सके। यह मूल्यांकन फसल की परिपक्वता अवधि के दौरान किया गया। मूल्यांकन के दौरान सभी किसानों ने अतिशीघ्र पकने एवं नियमित बढ़वार वाली अरहर की प्रजातियों को निम्न कारणों से प्राथमिकता दी:
- जल्दी पकने (110-115 दिनों) के कारण उनके क्षेत्र की मौजूदा कृषि प्रणाली में समायोजित होने के लिए उपयुक्त
- अनियमित बढ़वार वाली अरहर की तुलना में, नियमित बढ़वार वाली छोटी (1 मीटर तक) अतिशीघ्र पकने वाली अरहर में आंतरिक सस्य क्रियाओं के लिए सरलता
- पूरे खेत में आसान दृश्यता के कारण जंगली पशुओं से सुरक्षा जो पर्वतीय क्षेत्रों में एक बड़ी समस्या है
- अधिक फलियों की संख्या एवं समकालिक परिपक्वता
पर्वतीय क्षेत्रों में उन्नत अरहर उत्पादन हेतु संस्तुत पद्धतियां: अतिशीघ्र अरहर का फसल उत्पादन उत्तराखंड की पर्वतीय क्षेत्रों के लिए काफी अनुकूल है, एवं इसे फसल प्रणाली में आसानी से सम्मिलित किया जा सकता है।
अरहर-गेहूं, अरहर-तोरिया, अरहर-मटर एवं अरहर-मसूर पर्वतीय क्षेत्रों के लिए उपयुक्त फसल क्रम है। इसके साथ ही अरहर+सोयाबीन (2:2), अरहर+मूंगफली (1:1), अरहर+मंडुआ (1:4) उपयुक्त अंतरफसल प्रणालियां हैं। विगत वर्षों में पर्वतीय क्षेत्रों में अरहर की खेती का लाभ-लागत अनुपात भी अन्य फसलों (सिंचित धान, सिंचित गेहूं, मक्का, गहत, राजमा, मसूर एवं मटर) की अपेक्षा लाभकारी पाया गया है।
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में अरहर की खेती के प्रति किसानों की रुचि बढ़ाने हेतु उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप प्रजातियों का विकास करना उत्पादन को बढ़ने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। किसान-सहभागी चयन प्रक्रिया में कृषकों ने उच्च उपजशीलता के साथ-साथ उन गुणों को भी प्राथमिकता दी, जिससे उनके स्थानीय समस्याओं का निदान करने में मदद मिल सके।
अतः किसान-सहभागी मूल्यांकन एवं चयन, न केवल उच्च उपज वाले विकल्प प्रदान करता है, बल्कि यह पर्वतीय क्षेत्रों में खाद्य सुरक्षा, आर्थिक लाभ, पर्यावरणीय स्थिरता को भी प्रोत्साहित करने हेतु भी महत्वपूर्ण है। उन्नत अतिशीघ्र परिपक्वता वाली अरहर पारंपरिक फसल प्रणालियों को अधिक लाभकारी बना सकती है। इन प्रयासों के माध्यम से अरहर की खेती प्रचलित कृषि पद्धतियों में मजबूती लाएगी एवं पर्वतीय कृषि अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ एवं कृषकों की आजीविका को भी सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।
अतिशीघ्र पकने वाली अरहर का विकास एवं परीक्षण: पर्वतीय क्षेत्रों में अरहर विभिन्न जलवायु एवं भौगोलिक परिस्थितियों वाले स्थानों पर उगाई जाती है। अतः इस दलहन के अधिकाधिक विस्तार हेतु उन्नत अतिशीघ्र पकने वाली प्रजातियां काफी अनुकूल हैं। इस बिंदु को ध्यान में रखते हुए विगत कुछ वर्षों से भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद-विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, अल्मोड़ा द्वारा अरहर की अतिशीघ्र पकने वाली किस्मों के विकास पर बल दिया जा रहा है। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु शीघ्र एवं अतिशीघ्र परिपक्वता वाली अरहर की प्रविष्टियां, इक्रिसेट, पटंचेरु, हैदराबाद से प्राप्त की गई थीं। इन प्रविष्टियों का परीक्षण भाकृअनुप-विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, हवालबाग, अल्मोड़ा (अक्षांश 29°36′ उत्तर, देशांतर 79°40′ पूर्व और समुद्र तल से 1250 मीटर की ऊंचाई) में मध्यम पर्वतीय क्षेत्र में किया गया था। संस्थान में कृषक सहभागिता द्वारा अतिशीघ्र पकने वाली नियमित बढ़वार (बौनी) एवं अनियमित बढ़वार वाली किस्मों के अल्प अवधि में परिपक्वता (<120 दिनों), रोगों एवं कीटों के प्रति सहिष्णुता के आधार पर आईसीपीएल 20326, आईसीपीएल 20327, आईसीपीएल 11253, आईसीपीएल 11255 एवं आईसीपीएल 20340 प्रविष्टियों का चयन किया गया एवं उन्हें विभिन्न स्थानों के लिए परीक्षण हेतु राज्य प्रजाति परीक्षणों में नामित किया गया है, ताकि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में विभिन्न ऊंचाई वाले क्षेत्रों हेतु अनुकूल प्रजातियों का विकास किया जा सके।
कृषक सहभागिता चयन प्रक्रिया के अंतर्गत वांछित लाभ
- अतिशीघ्र परिपक्वता: कृषि प्रणाली में सरलतापूर्वक समायोजन फसलचक्र में सुधार जल एवं पोषक तत्वों की बचत जलवायु के लिए अनुकूलता मिश्रित खेती में उपयोगिता सूखा-सहिष्णुता आर्थिक लाभ।
- नियमित बढ़वार एवं छोटी ऊंचाई: सहज फसल प्रबंधन पौधों का बेहतर पोषण कटाई में सुविधा जलवायु के प्रति सहनशीलता फसलचक्र में योगदान उपज की गुणवत्ता में सुधार कम स्थान में अधिक उत्पादन।
- आसान दृश्यता: जंगली पशुओं से सुरक्षा एवं समय पर पहचान फसल सुरक्षा उपायों में सुधार नुकसान को कम करना रात्रि निगरानी में सुविधा संसाधनों का कुशल उपयोग मानसिक शांति स्थायी समाधान की संभावना।
- समकालिक परिपक्वता: कटाई में सुविधा एवं कम श्रम गुणवत्ता में सुधार कीट और रोग प्रबंधन पैदावार में वृद्धि भंडारण की सुविधा संसाधनों का कुशल उपयोग फसलचक्र में सुधार
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