फसल उत्पादन कैसे बढ़ाएं? हरी खाद का उपयोग, फायदे और विधि | Increase Your Crop with Green Manure

आधुनिक कृषि में रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग से मृदा की उर्वरक शक्ति, भौतिक संरचना एवं जैविक गुणवत्ता का अत्यधिक ह्रास हो रहा है। मृदा स्वास्थ्य में गिरावट के साथ-साथ फसलों की उत्पादकता में भी स्थिरता आ रही है। अतः मृदा स्वास्थ्य को बनाए रखने एवं फसल उत्पादकता एवं गुणवत्ता में वृद्धि के लिए जैविक खेती एक महत्वपूर्ण कृषि पद्धति है। जैविक खेती में अन्य कार्बनिक एवं जैविक घटकों के साथ-साथ हरी खाद का प्रयोग एक अहम भूमिका निभाता है। हरी खाद, मृदा की रासायनिक, भौतिक संरचना एवं जैविक गुणवत्ता को सुधारती है। इसके साथ ही आवश्यक पोषक तत्व भी उपलब्ध करवाती है। हरे पौधों (दलहनी तथा गैरदलहनी फसलों) को मृदा में जुताई करके मिला देना तथा हरे पदार्थ के सड़ने के पश्चात मृदा को पोषक तत्व प्रदान करने एवं जीवांश पदार्थ की मात्रा को बढ़ाने को ही हरी खाद कहते हैं।

हरी खाद वह प्रक्रिया है, जिसमें पत्तीदार दलहनी तथा गैरदलहनी हरी खाद फसलों को आवश्यक वृद्धि होने पर हरी अवस्था में या फूल आने के तुरंत बाद जुताई करके खेत की मिट्टी में दबा दिया जाता है।

हरी खाद वाली फसलों की वृद्धि शीघ्र होती है तथा अधिक मात्रा में जैव पदार्थ का उत्पादन करती हैं। ये फसलें सूक्ष्मजीवों द्वारा विच्छेदित होकर मृदा में कार्बन तथा पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि करती हैं।

जैविक खेती में हरी खाद का प्रयोग करने से मृदा क्षरण की मात्रा में वृद्धि होती है, मृदा संरचना सुधरती है, सूक्ष्मजीवों की संख्या एवं क्रियाशीलता में बढ़ोत्तरी होती है। पोषक तत्वों का संतुलन बना रहता है,
जिससे फसलों की उत्पादकता एवं गुणवत्ता में वृद्धि होती है।


फसल उत्पादन कैसे बढ़ाएं हरी खाद का उपयोग, फायदे और विधि  Increase Your Crop with Green Manure


हरी खाद वाली प्रमुख फसलें
  • ढैंचा: यह शीघ्र वृद्धि करने वाली हरी खाद की फसल है। इसे बुवाई के लगभग 6-8 सप्ताह बाद मृदा में मिलाया जा सकता है। यह विभिन्न प्रकार की मृदा एवं जलवायु परिस्थितियों के अनुकूल होती है। यहां तक कि इसे लवणीय मृदा, जल भराव की स्थिति तथा कम वर्षा वाली परिस्थितियों में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।
  • सनई: तेजी से बढ़ने वाली इस हरी खाद की फसल को सामान्यतः बारिश के मौसम में उगाया जाता है। यह अधिक मात्रा में जैव पदार्थ का उत्पादन करती है एवं सूखा प्रतिरोधी होती है। अतः हरी खाद के लिए यह एक उत्तम फसल है। इसका प्रयोग उत्तरी भारत में अधिक किया जाता है।
  • मूंग, उड़द, एवं लोबिया: ये फसलें बहुउद्देशीय होती हैं। इन्हें बीज उत्पादन, पशुओं के लिए हरा चारा एवं हरी खाद की फसल के रूप में उगाया जा सकता है। इन फसलों को फलियों की तुड़ाई के तुरंत बाद हरी खाद के लिए खेत में पलट दिया जाता है। इन्हें ग्रीष्म तथा खरीफ दोनों ही ऋतुओं में उगाया जा सकता है। देश के कम वर्षा वाले उत्तरी एवं पश्चिमी क्षेत्रों में इनकी बुवाई हरी खाद के साथ-साथ बीज उत्पादन के लिए की जा सकती है।
  • ग्वार: यह फसल भी मुख्यत: देश के कम वर्षा वाले उत्तरी एवं पश्चिमी क्षेत्रों में सब्जी के लिए फली उत्पादन एवं हरी खाद के रूप में उगाई जाती है।
  • हरी पत्तियों वाली हरी खाद की फसलें: सुब्बाबूल, ग्लिरिसिडिया, जंगली ढैंचा, आदि की पत्तियां एवं कोमल टहनियों को आसपास के स्थानों एवं जंगलों से एकत्रित करके जुताई द्वारा मिट्टी में मिलाया जाता है। इससे मृदा में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा में वृद्धि होती है, जिससे मृदा की संरचना में सुधार तथा फसलों के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की उपलब्धता में बढ़ोत्तरी होती है।


फसलों को खेत में मिलाने का समय: हरी खाद वाली फसलों को मृदा में उचित समय पर मिलाना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना इन्हें उगाना। अधिकांश हरी खाद वाली फसलों को मृदा में मिलाने का उचित समय बुवाई के 6 से 8 सप्ताह तक होता है। जब इन फसलों की अधिकतम वानस्पतिक वृद्धि हो चुकी होती है तथा पौधों की शाखाएं, तना एवं पत्तियां मुलायम होती हैं। विभिन्न हरी खाद वाली फसलों की बीज दर, जैव भार उत्पादन करने की क्षमता तथा मृदा में नाइट्रोजन उपलब्ध करवाने की क्षमता हरी खाद के प्रकार पर निर्भर करती


लाभ की तकनीकें: हरी खाद वाली फसलों से अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए इनकी बुवाई तथा मृदा में मिलाने का उपयुक्त समय एवं अगली फसल की बुवाई के समय का बेहतर ज्ञान होना आवश्यक है। इन फसलों को सही अवस्था पर ही मृदा में मिलाने से जीवांश पदार्थ तथा नाइट्रोजन की अधिक मात्रा प्राप्त होती है।

फसलों की प्रारंभिक अवधि, जब इनकी वानस्पतिक वृद्धि अधिकतम हो चुकी होती है तथा इनमें नाइट्रोजन एवं जल में घुलनशील घटकों की मात्रा अधिक होती है, तब खेत में पलटना चाहिए। इस अवस्था पर इनमें फूल आ जाते हैं, फसल अधिक परिपक्व नहीं होती एवं इनमें कार्बन:नाइट्रोजन अनुपात भी कम होता है। इस अवस्था पर इन फसलों को मृदा में मिलाने से इनका विघटन जल्दी पूर्ण होता है।

विघटन की प्रक्रिया को तीव्र करने के लिए मृदा में पर्याप्त नमी एवं वायु का उचित विनिमय होना आवश्यक है। इन फसलों को मृदा में मिलाने के लिए रोटावेटर का प्रयोग किया जा सकता है। इससे फसल को सीधे छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर मृदा में मिलाने की प्रक्रिया एक बार में ही पूरी हो जाती है। जिससे समय की बचत के साथ-साथ हरे पदार्थ का विघटन भी शीघ्र होता है। हरी खाद वाली फसलों में हरे पदार्थ की औसत उपज एवं नाइट्रोजन की प्राप्ति क्षेत्र की जलवायु एवं मृदा पर निर्भर करती है।

हरी खाद एक टिकाऊ एवं पर्यावरण अनुकूल कृषि पद्धति है, जो मृदा स्वास्थ्य को बनाए रखने एवं सुधारने में सहायक होती है। जैविक खेती में इसके सतत प्रयोग से मृदा में पोषक तत्वों का संतुलन एवं उपलब्धता लंबे समय तक बनी रहती है। यह न केवल किसानों के लिए आर्थिक दृष्टि से लाभकारी है बल्कि पर्यावरण को भी सुरक्षित रखता है। जिससे मृदा की उर्वरक शक्ति बढ़ती है। हरी खाद
के लिए उपयुक्त फसलों का चयन एवं उपयुक्त समय पर मृदा में मिलाने से फसल उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है।


खेत में हरी खाद का प्रयोग: हरी खाद को खेत में निम्न दो प्रकार से प्रयोग किया जा सकता है:
  • स्थानिक विधि: इस विधि में हरी खाद की खड़ी फसल को उसी खेत में उगाकर एक निश्चित समय पर (सामान्यतः 45-60 दिनों बाद) कल्टीवेटर या रोटावेटर चलाकर मिट्टी में मिला देते हैं। यह विधि मुख्यत: पर्याप्त वर्षा एवं सिंचाई जल की उपलब्धता वाले क्षेत्रों में अपनाई जाती है। देश के अधिकांश क्षेत्रों में यह विधि ज्यादा प्रचलित है, मुख्यत: उत्तरी भारत। उदाहरण: ढैंचा, मूंग, उड़द, सनई, ग्वार एवं लोबिया।
  • खेत के बाहर उपलब्ध हरी पत्तियों की खाद: इस विधि में हरी खाद की फसल अन्य खेत में उगाई जाती है और उसे उचित अवस्था पर काटकर प्रयोग किए जाने वाले खेत में जुताई करके मिला दिया जाता है। इस विधि में पेड़, पौधों, झाड़ियों आदि की पत्तियों एवं कोमल टहनियों को आसपास के स्थानों एवं जंगलों से एकत्रित करके खेत में मिलाया जाता है। यह विधि सामान्यत: कम वर्षा एवं सिंचाई जल की उपलब्धता वाले क्षेत्रों में अपनाई जाती है। दक्षिणी भारत में यह विधि अधिक प्रचलित है।


हरी खाद के लाभ
  • मृदा गुणवत्ता में सुधार: हरी खाद के प्रयोग से मृदा में जीवांश पदार्थ की मात्रा बढ़ती है। इससे मृदा की भौतिक संरचना, रासायनिक गुणों एवं जैविक गुणवत्ता में वृद्धि होती है। मृदा की जलधारण क्षमता बढ़ती है। इसके साथ ही आवश्यक मुख्य एवं सूक्ष्म पोषक तत्वों की उपलब्धता में भी बढ़ोत्तरी होती है। लवणीय एवं क्षारीय मृदा का सुधार होता है।
  • जीवांश पदार्थ की मात्रा बढ़ने से सूक्ष्मजीवों की संख्या एवं क्रियाशीलता में बढ़ोत्तरी होती है। इससे मृदा की उर्वरक शक्ति एवं उत्पादन क्षमता में वृद्धि होती है।
  • मृदा क्षरण से सुरक्षा: हरी खाद वाली फसलें मृदा सतह पर आवरण प्रदान करती हैं, जिससे वर्षा की बूंदों का मृदा सतह पर सीधा प्रभाव नहीं पड़ता एवं सतही जल प्रवाह की गति में भी बाधा उत्पन्न होती है और इस प्रकार मृदा क्षरण में कमी आती है एवं जल संरक्षण बढ़ता है।
  • जैविक नाइट्रोजन स्थिरीकरण: हरी खाद वाली फसलें जैविक नाइट्रोजन स्थिरीकरण द्वारा मृदा में नाइट्रोजन की उपलब्धता बढ़ाती हैं, जिससे फसल की उत्पादकता बढ़ती है।
  • मृदाजनित रोगों की रोकथाम होती है एवं खरपतवारों की वृद्धि रोकने में भी सहायक है।
  • फसलों की उत्पादकता एवं गुणवत्ता में वृद्धि: हरी खाद के प्रयोग से मृदा की भौतिक दशा सुधरती है, सूक्ष्मजीवों की सक्रियता बढ़ती है। इससे फसलों के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की उपलब्धता भी बढ़ती है। इससे फसल की वानस्पतिक वृद्धि एवं विकास अच्छा होता है। इस प्रकार फसल की उत्पादकता एवं गुणवत्ता बढ़ती है।


हरी खाद के लिए उपयुक्त फसलों का चयन
  • जैव-भार का उत्पादन अधिकतम हो, जिससे मृदा में उपस्थित पोषक तत्वों का पौधों में स्थानांतरण हो सके।
  • फसल की प्रारंभिक अवधि में शीघ्र वृद्धि हो, जिससे खरपतवारों का नियंत्रण हो सके एवं मृदा क्षरण भी कम हो।
  • फसल गहरी जड़ वाली हो, जिससे वह मृदा में गहराई तक जाकर अधिक से अधिक पोषक तत्वों को मृदा की ऊपरी सतह पर ला सके।
  • फसल के वानस्पतिक भाग जैसे शाखाएं, तना एवं पत्तियां मुलायम हों, जिससे जैविक पदार्थ का विघटन शीघ्र हो।
  • फसल में कार्बन:नाइट्रोजन अनुपात भी कम होना चाहिए, जिससे आगामी फसल के लिए पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि हो।
  • फसल में अधिकतम वायुमंडलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करने की क्षमता होनी चाहिए।
  • फसल संबंधित कीटों एवं रोगों के लिए अनुकूल नहीं होनी चाहिए।
  • फसल की जल एवं पोषक तत्वों की मांग कम से कम हो।
  • जल का कुशल उपयोग करने में सक्षम हो, जिससे मुख्य फसल के बाद मृदा में संरक्षित नमी या कम पानी के साथ उगाया जा सके।

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