गर्मी के मौसम में धूल भरी मटमैली आंधियां जिसे हम लू कहते हैं, वहीं गर्मियों के बाद बरसात शुरू होते ही नालों, नहरों, नदियों में मटमैले पानी का बहना आपने देखा होगा। क्या कभी सोचा है कि ऐसा क्यों होता है, शायद ही कभी इस पर ध्यान देते हैं। इस पूरे प्रकरण में आहार दाता-जीवन का आधार हमारी मिट्टी की क्षति होती है। प्रत्येक वर्ष लाखों टन मिट्टी की ऊपरी परत बहकर जलाशयों में समा जाती है। धरातल की 15 सें.मी. की परत कृषि के लिए सबसे जरूरी और उपजाऊ मानी जाती है और इसे बनने में हजारों वर्ष लग जाते हैं। गर्मियों में जब तेज हवा चलती है, जो कभी-कभी अपने साथ धूलकण लिए होती है। यह धूल खेतों की ऊपरी सतह की उपजाऊ मिट्टी होती है, जिसे वायु अपने साथ उड़ाकर ले जाती है। फिर बरसात में वनस्पति रहित भूमि पर वर्षा की तेज बौछारें पड़ती हैं, तो ऊपरी सतह की उपजाऊ मिट्टी घुल कर बह जाती है। इन दोनों प्रक्रियाओं में जो घटना घटती है उसे मिट्टी अपरदन कहते हैं, जो बहुत बड़े पैमाने पर हो रहा है। खेतों के अलावा अन्य मृदा से भी यह अपरदन हो रहा है और इस क्षय अथवा हानि के लिए जिम्मेदार भी हम हैं। अपनी मिट्टी को कैसे नष्ट कर रहे हैं इसे जानने के लिए कुछ तथ्यों को जानना जरूरी है, जो लेख में दिए जा रहे हैं।
मनुष्य अपनी जरूरतों को पूरा करने तथा ज्यादा धन कमाने के लिए वनों की कटाई एवं विविधता को हानि पहुंचाते हैं। धरती के आवरण का दोहन किया जा रहा है। मृदा अपरदन निरंतर हो रहा है, कभी-कभी इन वनों में आग भी लगा दी जाती है। अपनी जरूरतों के लिए मनुष्य द्वारा निरंतर प्रकृति एवं उसकी विविधताओं का हनन किया जा रहा है। यह क्रिया मृदा अपरदन का कारक होती है।
पशुओं द्वारा अधिकतम चराई: चरवाहों, प्राकृतिक क्षेत्रों और कृषि योग्य भूमि पर पशुओं द्वारा अंधाधुंध चराई भी प्राकृतिक आवरण को हानि पहुंचा रही है। पशुओं के लिए वृक्ष से पत्तों की अधिक तुड़ाई से भी वृक्ष नष्ट हो जाते हैं। इस तरह भी प्राकृतिक आवरण का सफाया होता है।
भवन एवं सड़क निर्माण: भवन एवं सड़क निर्माण के लिए जंगलों को नष्ट करना, ईंट बनाने, कच्ची सड़क या कच्चे मकानों के निर्माण के लिए मृदा की कटाई भी अपरदन को बढ़ावा देती है।
कृषि की दोषपूर्ण विधियां: कृषि से जुड़े लोग इसके लिए जिम्मेदार हैं अतः इसकी विशेष चर्चा ज्यादा जरूरी है। यदि जमीन ढालू हो, तो ढाल की दिशा में जुताई मृदा अपरदन का कारण बनती है, जरूरत से ज्यादा या गलत ढंग से सिंचाई भी हानिकारक है। रासायनिक उर्वरकों का ज्यादा उपयोग भी जमीन की संरचना को बिगाड़ देता है। मृदा की संरचना बिगड़ जाने से इसका ह्रास शुरू हो जाता है। निरंतर धान्य फसलें जैसे-धान, गेहूं, मक्का इत्यादि तथा कुछ फसलें जैसे-ज्वार-बाजरा की लगातार खेती मृदा अपरदन को बढ़ावा देती हैं।
मृदा को अपरदन से बचाव हेतु महत्वपूर्ण कदम
बांध बनाना: खेत के लंबे ढाल को सुविधाजनक छोटे-छोटे खेतों में बांट दिया जाता है, मेड़ों को ऊंचा किया जाता है और उन पर घास लगाई जाती है। इन बाधों पर घास लगाने से ये मजबूत हो जाते हैं और पानी से होने वाले मृदा कटाव को रोकते हैं।
समतलीकरण: ऊंचे-नीचे खेतों को समतल करना चाहिए, समतलीकरण का कार्य बांध बनाने के बाद करना चाहिए। बरसात के मौसम के बाद खेतों की मृदा नम रहती है, उस समय यह क्रिया करने में आसानी होती है। खेतों के अलावा अन्य मृदा यानि परती/बंजर इत्यादि का भी समतलीकरण करने से भी मृदा कटाव रुकता है।
सीढ़ीदार खेती: ढालूदार या पहाड़ों पर खेती की जमीन को सीढ़ीनुमा बनाकर खेती करनी चाहिए। ढाल के विपरीत जुताई करनी चाहिए, जिससे मृदा का कटाव कम हो।
आवरण फसलें लगाना: भूमि ढकने वाली फसलें जैसे-मूंग, उड़द, लोबिया, मूंगफली इत्यादि की खेती करनी चाहिए। परती जमीनों को समतलीकरण करने के बाद इन दलहनी फसलों से आच्छादित करना चाहिए और बंजर भूमि में घास या अन्य वनस्पतियों के बीज मई या जून में बिखेर देना चाहिए, ताकि बारिश के समय इनका अंकुरण एवं विकास हो सके।
फसलचक्र अपनाना: लगातार धान-गेहूं या एक ही फसलचक्र अपनाने से विभिन्न समस्याएं आती हैं। इस प्रकार उचित फसलचक्र में दलहनी फसलों यथा मूंग, उड़द, लोबिया, मूंगफली, अरहर, चना, मसूर इत्यादि को लगाना चाहिए।
पलवार का उपयोग: पौधों के अवशेषों, पत्तियों, पुआल, भूसा इत्यादि से भूमि को ढकने से तेज हवा, वर्षा एवं धूप से जमीन की रक्षा होती है। इसके साथ ही नमी का भी संरक्षण होता है। यह मृदा अपरदन को कम करता है।
वायुरोधक पट्टियां लगाना: दक्षिण-पश्चिम दिशा में वायुरोधक वृक्ष लगाने चाहिए। गर्मियों में तेज गर्म हवा चलती है, जो अपने साथ ऊपरी परत की उपजाऊ मृदा को उड़ा ले जाती है। वृक्षों में शीशम, नीम, बबूल, जंगल जलेबी, सिरिस इत्यादि को रोपण कर सकते हैं।
घास लगाना: घासों को बंजर या मृदा क्षरण समस्या से ग्रसित मृदा में लगाना चाहिए। इसके लिए दूब, अंजन, खस, जापानी घास इत्यादि उपयुक्त हैं।
वृक्षारोपण: वृक्षारोपण अनेक प्रकार से मानव हित का कार्य करते हैं। मृदा संरक्षण के साथ-साथ इनके अनेक लाभ हैं, जिसे प्रोत्साहन देना चाहिए।
सही एवं विवेकपूर्ण कृषि कार्य: उचित जुताई एवं भूमि की तैयारी, जल प्रबंधन, संतुलित उर्वरक प्रबंधन पर ध्यान देना चाहिए। फसलचक्र में सही फसल का चयन करना चाहिए। खेत की जुताई कब, कितनी और कैसे करनी है, यह अच्छी तरह ज्ञात होनी चाहिए।
हम अपनी मूल जरूरतों के लिए मृदा पर पूर्ण रूप से निर्भर हैं अतः अस्तित्व के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण और अनिवार्य है। मृदा की ऊपरी परत जो उपजाऊ है का निरंतर दोहन मनुष्य के लिए भयावह हो सकता है। विश्व के अन्य कई भागों में भी खेती लायक मृदा भी बंजर हो गयी है। मृदा अमूल्य प्राकृतिक धरोहर है अतः इसमें कोई भी कार्य या गतिविधि उन्नत तकनीक से होना चाहिए, ताकि इसके कण-कण की रक्षा हो सके।
मृदा अपरदन से होने वाले अन्य परिणाम
- मृदा के क्षरण के साथ-साथ उर्वरता में कमी
- खेती योग्य भूमि का बंजर होना
- रेतीले प्रदेशों का तेजी से विस्तार
- नदियों, नहरों, तालाबों, झीलों एवं अन्य जल स्रोतों इत्यादि का भरना
- बाढ़ की तीव्रता एवं संख्या में वृद्धि
- आवागमन के साधनों (सड़क, रेल) को संकट
- प्राकृतिक वनस्पतियों, वन्य जंतुओं का ह्रास
- अधिक तापमान और वर्षा के औसत में कमी
- बार-बार सूखा पड़ना
- जलवायु परिवर्तन
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