सब्जी मटर की सफल खेती: संपूर्ण जानकारी और उन्नत विधियाँ | How to Cultivate Green Peas? A Guide from Successful Sowing to Harvest

बुंदेलखंड क्षेत्र में 13 जिले शामिल हैं। इसमें उत्तर प्रदेश के 7 जिले और मध्य प्रदेश के 6 जिले शामिल हैं। यहां मटर, सब्जी वाली मटर या हरी मटर के रूप में भी जानी जाती है। यह लेग्युमिनोसी कुल का सदस्य है। इसका वानस्पतिक नाम 'पाइसम सैटाइवम किस्म हॉरटेंस' है। इसकी जड़ों में राइजोबियम नामक जीवाणु पाया जाता है जो वातावरण में मौजूद नाइट्रोजन को पौधों की गांठों के रूप में एकत्र करता है जिससे फसल की पैदावार में वृद्धि होती है।

हरी मटर हमारे शरीर में रक्त शर्करा को नियंत्रित करने में मदद करती है। हरी मटर पाचन में सुधार करने में मदद करती है। हरी मटर का भूसा एक पौष्टिक चारा है और इसका उपयोग किसी भी पशुधन के चारे के रूप में कर सकते हैं। भारत में हरी मटर का उत्पादन कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, पंजाब, असम, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, बिहार और ओडिशा में किया जाता है। वहीं उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में हरी मटर उत्पादक मुख्य जिले ललितपुर, जालौन, महोबा, हमीरपुर आदि हैं।


सब्जी मटर की सफल खेती संपूर्ण जानकारी और उन्नत विधियाँ  How to Cultivate Green Peas A Guide from Successful Sowing to Harvest


जलवायु: सब्जी मटर की सफल खेती के लिए महत्वपूर्ण पहलू सब्जी मटर की सफल खेती के लिए जलवायु एक महत्वपूर्ण कारक है। यह समझना आवश्यक है कि इस फसल को किस प्रकार के मौसम की आवश्यकता होती है ताकि अधिकतम उपज और गुणवत्ता प्राप्त की जा सके।
  • नम और ठंडी जलवायु: हरी मटर की फसल को पनपने के लिए नम और ठंडी जलवायु की आवश्यकता होती है। यह विशेष रूप से तब महत्वपूर्ण होता है जब पौधे फूल और फलियां बना रहे होते हैं। इस अवस्था में ठंडी और पाले से मुक्त जलवायु आदर्श मानी जाती है। पाला मटर की फसल के लिए हानिकारक हो सकता है, क्योंकि यह फूलों और छोटी फलियों को नुकसान पहुंचा सकता है, जिससे उपज में भारी कमी आ सकती है।
  • अंकुरण के लिए आदर्श तापमान: मटर के बीज के अंकुरण (जमाव) के लिए, लगभग 20 से 25 डिग्री सेल्सियस (68 से 77 डिग्री फ़ारेनहाइट) का तापमान सबसे उपयुक्त होता है। इस तापमान सीमा में बीज तेज़ी से और समान रूप से अंकुरित होते हैं, जिससे स्वस्थ पौधों का विकास सुनिश्चित होता है।
  • उच्च तापमान का प्रभाव: मटर की फसल उच्च तापमान के प्रति संवेदनशील होती है। यदि तापमान बहुत अधिक हो जाता है, खासकर जब फलियां बन रही हों, तो यह सीधे तौर पर फली की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। उच्च तापमान के कारण बीजों में मौजूद शर्करा हेमीसेल्यूलोज और स्टार्च में बदल जाती है। इससे मटर की मिठास कम हो जाती है और उसकी वांछित बनावट खराब हो जाती है, जिससे बाजार मूल्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

संक्षेप में, सब्जी मटर की खेती में सफलता के लिए ठंडी, नम और पाला रहित जलवायु आवश्यक है। अंकुरण के लिए उचित तापमान और फली विकास के दौरान अत्यधिक गर्मी से बचाव, दोनों ही अच्छी गुणवत्ता और उच्च उपज सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण हैं।


मृदा: सब्जी मटर की सफल खेती के लिए आवश्यक पहलू सब्जी मटर की सफल खेती के लिए मृदा (मिट्टी) का चुनाव और प्रबंधन अत्यंत महत्वपूर्ण है। सही प्रकार की मिट्टी और उसकी उचित देखभाल से ही मटर की अच्छी उपज और गुणवत्ता सुनिश्चित की जा सकती है।

उपयुक्त भूमि का चुनाव: मटर एक फलीदार फसल है, और इसे उन सभी कृषि योग्य भूमियों में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है जहाँ उचित मात्रा में नमी उपलब्ध हो। मिट्टी में पर्याप्त नमी का होना पौधों के विकास, विशेषकर अंकुरण और फली बनने के चरणों में, बहुत महत्वपूर्ण है।

मिट्टी के प्रकार: हरी मटर की खेती के लिए सबसे उत्तम मृदा मटियार दोमट (Clay Loam) और दोमट मृदा (Loamy Soil) मानी जाती है। इन मिट्टियों में जल निकासी अच्छी होती है, साथ ही ये नमी को बनाए रखने की क्षमता भी रखती हैं, जो मटर की फसल के लिए आदर्श है।
  • दोमट मिट्टी: यह मिट्टी बालू, गाद और चिकनी मिट्टी का संतुलित मिश्रण होती है। इसमें हवा का संचार अच्छा होता है, जो जड़ों के विकास के लिए महत्वपूर्ण है, और यह पोषक तत्वों को भी अच्छी तरह से धारण करती है।
  • मटियार दोमट मिट्टी: इसमें दोमट मिट्टी की विशेषताओं के साथ-साथ चिकनी मिट्टी का अंश थोड़ा अधिक होता है, जिससे इसकी जल धारण क्षमता और भी बेहतर हो जाती है।

पीएच (pH) मान: मटर की खेती के लिए मिट्टी का पीएच (pH) मान 6.0 से 7.5 के मध्य होना उपयुक्त माना जाता है। यह हल्की अम्लीय से लेकर हल्की क्षारीय तक की सीमा है, जिसमें मटर के पौधे पोषक तत्वों को सबसे प्रभावी ढंग से अवशोषित कर पाते हैं। यदि मिट्टी का पीएच इस सीमा से बाहर है, तो इसे चूना या अन्य संशोधन जोड़कर समायोजित करने की आवश्यकता हो सकती है।

मिट्टी की तैयारी: सब्जी मटर की बुवाई से पहले खेत की जुताई अच्छी तरह करनी चाहिए ताकि मिट्टी भुरभुरी हो जाए। इससे जड़ों को आसानी से फैलने का मौका मिलता है और पानी का उचित प्रबंधन होता है। बुवाई से पहले मिट्टी में गोबर की खाद या अन्य जैविक पदार्थ मिलाने से उसकी उर्वरता और संरचना में सुधार होता है, जिससे मटर की फसल को बेहतर पोषण मिलता है।

संक्षेप में, सब्जी मटर के लिए अच्छी जल निकासी वाली, नमी धारण करने वाली मटियार दोमट या दोमट मिट्टी जिसका पीएच 6.0 से 7.5 हो, आदर्श मानी जाती है। मिट्टी की उचित तैयारी और पोषक तत्वों का संतुलन सफल खेती की कुंजी है।


उन्नत किस्में: सब्जी मटर की सफल खेती के लिए महत्वपूर्ण सब्जी मटर की सफल खेती के लिए उन्नत किस्मों का चुनाव एक महत्वपूर्ण निर्णय है, जो आपकी उपज की मात्रा और गुणवत्ता दोनों को प्रभावित करता है। सही किस्म का चुनाव आपकी जलवायु, मिट्टी के प्रकार, बाजार की मांग और आपके खेती के उद्देश्यों पर निर्भर करता है। सब्जी मटर की किस्में मुख्य रूप से उनके पकने के समय के आधार पर वर्गीकृत की जाती हैं: अगेती (जल्दी पकने वाली), मध्यम (मध्यम समय में पकने वाली), और पछेती (देर से पकने वाली)।

अगेती वर्गीय प्रजातियां (Early Maturing Varieties): ये किस्में कम समय में पककर तैयार हो जाती हैं, जिससे किसानों को जल्दी मुनाफा कमाने का अवसर मिलता है। ये अक्सर उन क्षेत्रों के लिए उपयुक्त होती हैं जहाँ बुवाई का मौसम छोटा होता है या जहाँ जल्दी बाजार में पहुंचने की आवश्यकता होती है।
  • ए.पी.-3 (A.P.-3): यह एक लोकप्रिय अगेती किस्म है जो अपनी अच्छी उपज और गुणवत्ता के लिए जानी जाती है।
  • अगेता (उकठा रोधी): यह किस्म "अगेता" नाम से जानी जाती है और विशेष रूप से उकठा रोग (Wilt disease) के प्रति प्रतिरोधी होती है। यह रोग मटर की फसल को काफी नुकसान पहुंचा सकता है, इसलिए रोग प्रतिरोधी किस्मों का चुनाव जोखिम को कम करने में मदद करता है।
  • अर्किल (Arkel): अर्किल एक और प्रसिद्ध अगेती किस्म है जो अपनी छोटी फलियों और मीठे दानों के लिए जानी जाती है। यह खासकर ताजी खपत के लिए लोकप्रिय है।
  • हरभजन (Harbhajan): यह भी एक अच्छी अगेती किस्म है जो अपनी पैदावार और अनुकूलनशीलता के लिए जानी जाती है।

मध्यम वर्गीय प्रजातियां (Medium Maturing Varieties): ये किस्में अगेती किस्मों की तुलना में थोड़ा अधिक समय लेती हैं, लेकिन अक्सर बेहतर उपज और बड़े दाने प्रदान करती हैं।
  • आजाद पी-एम (Azad P-M): यह एक प्रमुख मध्यम वर्गीय किस्म है। यह अपनी अच्छी पैदावार और रोग प्रतिरोधक क्षमता के कारण किसानों के बीच काफी लोकप्रिय है।

किस्मों का चुनाव करते समय विचारणीय बिंदु:
  • स्थानीय जलवायु: सुनिश्चित करें कि चयनित किस्म आपके क्षेत्र की जलवायु परिस्थितियों के अनुकूल हो।
  • मिट्टी का प्रकार: कुछ किस्में विशेष मिट्टी के प्रकारों में बेहतर प्रदर्शन करती हैं।
  • रोग और कीट प्रतिरोध: रोग प्रतिरोधी किस्में फसल को नुकसान से बचाती हैं और रासायनिक उपचार की आवश्यकता को कम करती हैं।
  • बाजार की मांग: स्थानीय बाजार में किस प्रकार की मटर (ताजी, प्रसंस्कृत, सूखा दाना) की मांग है, उसके अनुसार किस्म चुनें।
  • उपज क्षमता: किस्म की प्रति हेक्टेयर उपज क्षमता पर विचार करें।
  • फली और दाने की गुणवत्ता: दाने का आकार, मिठास, रंग और फलियों की एकरूपता बाजार मूल्य को प्रभावित करती है।

सही उन्नत किस्म का चुनाव करके और उचित कृषि पद्धतियों का पालन करके, किसान सब्जी मटर की खेती से अधिकतम लाभ प्राप्त कर सकते हैं।


बुवाई और बीज दर: सब्जी मटर की सफल खेती के लिए महत्वपूर्ण सब्जी मटर की सफल खेती में बुवाई का समय और बीज दर दो ऐसे महत्वपूर्ण कारक हैं जो न केवल फसल के उत्पादन पर बल्कि उसकी गुणवत्ता पर भी सीधा प्रभाव डालते हैं। सही समय पर बुवाई और उचित बीज दर का उपयोग करके ही आप अधिकतम उपज प्राप्त कर सकते हैं।

बुवाई का समय: हरी मटर की अच्छी फसल लेने के लिए मध्य अक्टूबर से मध्य नवंबर तक बुवाई कर देनी चाहिए। यह समय भारत के अधिकांश हिस्सों में मटर की खेती के लिए आदर्श माना जाता है क्योंकि इस अवधि में मौसम ठंडा और नम होना शुरू हो जाता है, जो मटर के पौधों के विकास के लिए अनुकूल है।
  • अक्टूबर की शुरुआत में बुवाई: कुछ क्षेत्रों में, खासकर जहाँ सर्दियां जल्दी शुरू हो जाती हैं, अक्टूबर की शुरुआत में बुवाई की जा सकती है। इससे फसल को ठंड पड़ने से पहले पर्याप्त विकास का समय मिल जाता है।
  • नवंबर के अंत तक बुवाई: यदि क्षेत्र में सर्दी का मौसम लंबा चलता है, तो नवंबर के अंत तक भी बुवाई की जा सकती है। हालांकि, बहुत देर से बुवाई करने से पाले का खतरा बढ़ सकता है और उपज प्रभावित हो सकती है।
सही बुवाई का समय चुनते समय स्थानीय जलवायु परिस्थितियों और उपलब्ध किस्मों को ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है।

बीज दर: बीज दर का निर्धारण मुख्य रूप से चुनी गई किस्म के प्रकार (अगेती, मध्यम या पछेती) और बीज के आकार पर निर्भर करता है। सही बीज दर यह सुनिश्चित करती है कि खेत में पौधों की उचित संख्या हो, जिससे उन्हें पर्याप्त धूप, पोषक तत्व और पानी मिल सके। बहुत अधिक बीज दर से पौधों में प्रतिस्पर्धा बढ़ जाती है, जबकि बहुत कम बीज दर से खेत की पूरी क्षमता का उपयोग नहीं हो पाता।
  • अगेती प्रजातियों के लिए: अगेती प्रजातियों के लिए 100-120 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की बीज दर उपयुक्त होती है। इन किस्मों के बीज अक्सर थोड़े छोटे होते हैं और इन्हें जल्दी विकास के लिए थोड़ी अधिक सघनता की आवश्यकता हो सकती है।
  • मध्यम और देर से बोई जाने वाली प्रजातियों के लिए: मध्यम और देर से बोई जाने वाली प्रजातियों के लिए 80-90 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की बीज दर उपयुक्त मानी जाती है। इन किस्मों के बीज अक्सर थोड़े बड़े होते हैं और इनमें अधिक फैलाव की प्रवृत्ति होती है, इसलिए थोड़ी कम बीज दर पर्याप्त होती है।

बुवाई की विधि: मटर की बुवाई आमतौर पर पंक्तियों में की जाती है। पंक्तियों के बीच की दूरी लगभग 30-45 सेंटीमीटर और पौधों के बीच की दूरी 5-10 सेंटीमीटर रखी जाती है। इससे पौधों को उचित जगह मिलती है और कृषि कार्य (जैसे निराई-गुड़ाई, सिंचाई) आसानी से किए जा सकते हैं।

ध्यान देने योग्य बातें:
  • बीजोपचार: बुवाई से पहले बीजों का बीजोपचार करना बहुत महत्वपूर्ण है। इससे बीज जनित रोगों और कीटों से बचाव होता है और अंकुरण में सुधार होता है। राइजोबियम कल्चर से बीजोपचार करना विशेष रूप से फायदेमंद होता है क्योंकि यह नाइट्रोजन स्थिरीकरण में मदद करता है।
  • मिट्टी की नमी: बुवाई के समय मिट्टी में पर्याप्त नमी होनी चाहिए ताकि बीज अच्छी तरह अंकुरित हो सकें। यदि मिट्टी सूखी है, तो बुवाई से पहले हल्की सिंचाई की आवश्यकता हो सकती है।

सही समय पर उचित बीज दर से बुवाई करके किसान सब्जी मटर की एक स्वस्थ और लाभकारी फसल प्राप्त कर सकते हैं।


बीजोपचार: खेत में बोने से पहले बीज का उपचार राइजोबियम बैक्टीरिया से कर लेना चाहिए। यह हरी मटर के उत्पादन और गुणवत्ता को बढ़ाने का सबसे सरल तरीका है। बीज को उपचारित करने के लिए सबसे पहले गुड़ के घोल की आवश्यकता होती है ताकि राइजोबियम बीज की ऊपरी सतह पर अच्छी तरह से चिपक जाएं। इसमें 10 प्रतिशत गुड़ के घोल को 15 मिनटों तक उबालते हैं और फिर घोल को कमरे के तापमान पर ठंडा करते हैं। ठंडा होने के बाद गुड़ का घोल और राइजोबियम बीज के ऊपर छिड़ककर बीज में अच्छी तरह मिलाते हैं। अच्छी तरह मिलाने के बाद बीज को कुछ समय के लिए छायादार स्थान पर खुला छोड़ देते हैं ताकि जीवाणु की एक पतली परत बीज पर बन जाए। राइजोबियम से उपचारित बीज कभी भी धूप में नहीं सुखाना चाहिए क्योंकि जीवाणु धूप से मर सकते हैं। उपचारित बीज की बुवाई शाम के समय करनी चाहिए।


खाद एवं उर्वरक: सब्जी मटर की सफल खेती के लिए आवश्यक पोषण सब्जी मटर की सफल खेती के लिए खाद एवं उर्वरकों का सही और संतुलित प्रयोग बहुत ज़रूरी है। यह पौधों के स्वस्थ विकास, फूल आने, फली बनने और अंततः अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण है। मटर एक दलहनी फसल है, जिसकी पोषक तत्वों की आवश्यकताएं कुछ अलग होती हैं, खासकर नाइट्रोजन के संबंध में।

गोबर की खाद (Farmyard Manure - FYM)
  • प्रयोग: बुवाई से पहले खेत की पहली जुताई के समय 20 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से गोबर की खाद को मिट्टी में अच्छी तरह मिला देना चाहिए।
  • महत्व: गोबर की खाद मिट्टी की संरचना (मिट्टी की बनावट) में सुधार करती है, उसकी जल धारण क्षमता बढ़ाती है, और सूक्ष्मजीवों की गतिविधियों को प्रोत्साहित करती है। यह धीरे-धीरे पोषक तत्वों को छोड़ती है, जिससे पौधों को लंबे समय तक पोषण मिलता रहता है। यह मिट्टी के जैविक स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभकारी है।

रासायनिक उर्वरक: मटर एक दलहनी फसल होने के कारण अपनी जड़ों में मौजूद राइजोबियम जीवाणु (जो नाइट्रोजन स्थिरीकरण करते हैं) के माध्यम से वायुमंडलीय नाइट्रोजन को मिट्टी में स्थापित करने में सक्षम होती है। इसलिए, इसे नाइट्रोजन की विशेष आवश्यकता नहीं होती है।
  • नाइट्रोजन (N): हरी मटर की फसल को प्रारंभिक अवस्था में 20 से 30 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। यह शुरुआती विकास को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त होता है, जब तक कि राइजोबियम जीवाणु सक्रिय होकर नाइट्रोजन स्थिरीकरण शुरू न कर दें। इस नाइट्रोजन की पूर्ति के लिए बुवाई के समय यूरिया या डीएपी जैसे उर्वरक का उपयोग किया जा सकता है।
  • फास्फोरस (P): नाइट्रोजन के अतिरिक्त, मटर की फसल के लिए फास्फोरस एक बहुत ही महत्वपूर्ण पोषक तत्व है। स्वस्थ जड़ विकास, फूल आने और फलियां बनने के लिए फास्फोरस अनिवार्य है। प्रति हेक्टेयर 50 से 60 किलोग्राम फास्फोरस देना अनिवार्य है। इसे आमतौर पर सिंगल सुपर फास्फेट (SSP) या डाई-अमोनियम फास्फेट (DAP) के रूप में दिया जाता है।
  • पोटाश (K): पौधों की समग्र मजबूती, रोगों और कीटों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने और गुणवत्तापूर्ण फलियों के विकास के लिए पोटाश भी आवश्यक है। प्रति हेक्टेयर 40 से 50 किलोग्राम पोटाश देना अनिवार्य है। इसे म्यूरेट ऑफ पोटाश (MOP) के रूप में दिया जा सकता है।

उर्वरक प्रयोग का तरीका: सभी रासायनिक उर्वरकों (नाइट्रोजन का बचा हुआ हिस्सा, फास्फोरस और पोटाश) को बुवाई के समय आधार खुराक (basal dose) के रूप में खेत में अच्छी तरह मिला देना चाहिए। यह सुनिश्चित करता है कि पोषक तत्व पौधों की जड़ों की पहुंच में हों जब उन्हें उनकी सबसे अधिक आवश्यकता हो। फास्फोरस और पोटाश को आमतौर पर बुवाई के समय ही पूरा दे दिया जाता है। नाइट्रोजन की प्रारंभिक मात्रा भी बुवाई के समय ही दी जाती है।

सूक्ष्म पोषक तत्व: हालांकि ऊपर बताए गए मुख्य पोषक तत्व मटर के लिए सबसे महत्वपूर्ण हैं, मिट्टी की जांच के आधार पर कुछ सूक्ष्म पोषक तत्वों (जैसे बोरॉन, जिंक) की कमी होने पर उनका भी प्रयोग किया जा सकता है। सूक्ष्म पोषक तत्व पौधों के विभिन्न जैविक कार्यों के लिए थोड़ी मात्रा में आवश्यक होते हैं।

खाद एवं उर्वरकों का संतुलित प्रयोग न केवल अच्छी उपज सुनिश्चित करता है, बल्कि मिट्टी के स्वास्थ्य को भी बनाए रखता है, जिससे भविष्य की फसलें भी बेहतर होती हैं।


सिंचाई: सब्जी मटर की सफल खेती के लिए जल प्रबंधन सब्जी मटर की सफल खेती में सिंचाई का उचित प्रबंधन बहुत महत्वपूर्ण है। मटर को नमी पसंद होती है, लेकिन अधिक पानी से नुकसान हो सकता है। सही समय पर और सही मात्रा में पानी देने से पौधों का स्वस्थ विकास होता है और उपज में वृद्धि होती है।

सिंचाई की आवश्यकता: सब्जी मटर की उन्नत प्रजातियों में सामान्यतः दो सिंचाइयों की आवश्यकता होती है:
  • पहली सिंचाई: यह फूल निकलने के समय की जाती है, जो आमतौर पर बुवाई के 45 दिनों बाद होती है। इस अवस्था में पौधों को पानी की सख्त जरूरत होती है क्योंकि यह फूलों के विकास और फलियां बनने की प्रारंभिक प्रक्रिया को सीधे प्रभावित करती है। पर्याप्त नमी से फूल झड़ने की समस्या कम होती है और फलियों का सही विकास सुनिश्चित होता है।
  • दूसरी सिंचाई: यह आवश्यकता पड़ने पर की जाती है, खासकर जब फलियां बन रही हों, जो बुवाई के लगभग 60 दिनों बाद होती है। इस समय फलियों में दाने भरने शुरू होते हैं और पानी की कमी से दानों का आकार और वजन कम हो सकता है।

बुंदेलखंड क्षेत्र में विशेष ध्यान: बुंदेलखंड जैसे क्षेत्रों में, जहां पानी की कमी एक बड़ी समस्या है, अक्सर केवल एक ही सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध हो पाता है। ऐसी स्थिति में, सिंचाई का समय और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। यदि केवल एक सिंचाई करनी हो, तो उसे फूल आने के समय (लगभग 45 दिन बाद) करना सबसे प्रभावी होता है, क्योंकि यह फसल की सबसे महत्वपूर्ण जल-संवेदनशील अवस्था है।

सिंचाई करते समय ध्यान रखने योग्य बातें:
  • हल्की सिंचाई: मटर की फसल को हल्की सिंचाई की आवश्यकता होती है। खेत में पानी जमा नहीं होना चाहिए, क्योंकि ठहरा हुआ पानी जड़ों को नुकसान पहुंचा सकता है और बीमारियों को बढ़ावा दे सकता है।
  • मिट्टी की नमी: सिंचाई का निर्णय मिट्टी की नमी की स्थिति को देखकर लेना चाहिए। यदि ऊपरी परत सूखने लगे तो सिंचाई की आवश्यकता हो सकती है।
  • मौसम की स्थिति: यदि बारिश होती है तो सिंचाई की आवश्यकता कम हो सकती है। सूखे और गर्म मौसम में अधिक बार सिंचाई की आवश्यकता पड़ सकती है।
  • अत्यधिक सिंचाई से बचें: अधिक सिंचाई से पौधों की वृद्धि रुक सकती है, जड़ सड़न जैसी बीमारियां हो सकती हैं और मिट्टी से पोषक तत्वों का लीचिंग हो सकता है।
  • सुबह या शाम का समय: सिंचाई हमेशा सुबह या शाम को करनी चाहिए ताकि पानी के वाष्पीकरण को कम किया जा सके और पौधों को पानी का अधिकतम लाभ मिल सके। दोपहर की तेज धूप में सिंचाई से बचना चाहिए।
  • ड्रेनेज (जल निकासी): सुनिश्चित करें कि खेत में अच्छी जल निकासी की व्यवस्था हो ताकि अतिरिक्त पानी आसानी से बाहर निकल सके।

सही सिंचाई प्रबंधन के माध्यम से, किसान सब्जी मटर की स्वस्थ फसल उगा सकते हैं, भले ही पानी की उपलब्धता सीमित क्यों न हो। यह फसल की उपज और गुणवत्ता दोनों को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।


खरपतवार नियंत्रण: सब्जी मटर की सफल खेती के लिए एक अनिवार्य कदम सब्जी मटर की सफल खेती के लिए खरपतवार नियंत्रण एक अत्यंत महत्वपूर्ण कृषि कार्य है। खरपतवार वे अवांछित पौधे होते हैं जो मुख्य फसल के साथ पोषक तत्वों, पानी, धूप और स्थान के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, जिससे मटर की उपज और गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। प्रभावी खरपतवार नियंत्रण से फसल को स्वस्थ विकास का अवसर मिलता है।

खरपतवारों से बचाव का महत्वपूर्ण समय: फसल बोने के 35-40 दिनों तक फसल को खरपतवारों से बचाना अत्यंत आवश्यक है। यह अवधि मटर के पौधों के शुरुआती और महत्वपूर्ण विकास चरण को कवर करती है। इस दौरान खरपतवारों की उपस्थिति फसल को सबसे अधिक नुकसान पहुंचा सकती है।

खरपतवार नियंत्रण के तरीके: खरपतवार नियंत्रण के लिए मुख्य रूप से दो विधियों का उपयोग किया जाता है:

यांत्रिक विधि (निराई-गुड़ाई):
  • आवश्यकतानुसार एक या दो निराई-गुड़ाई बोने के 30-35 दिनों बाद करनी चाहिए। यह खरपतवारों को हाथ से या छोटे कृषि उपकरणों की मदद से हटाने की विधि है।
  • निराई: इसमें पौधों के आस-पास से खरपतवारों को हाथ से या खुरपी से निकाला जाता है।
  • गुड़ाई: इसमें मिट्टी को हल्का ढीला किया जाता है, जिससे खरपतवारों की जड़ें टूट जाती हैं और वे सूख जाते हैं। गुड़ाई से मिट्टी में हवा का संचार भी बेहतर होता है और पानी सोखने की क्षमता बढ़ती है।
रासायनिक विधि (खरपतवारनाशकों का प्रयोग):
  • रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण करने के लिए, 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर फ्लूक्लोरेलिन (Fluchloralin) या बेसालीन (Basalin) की मात्रा का 800-1000 लीटर पानी में घोल बनाकर खेत में छिड़काव करें।
  • प्रयोग का समय: इन खरपतवारनाशकों का प्रयोग आमतौर पर बुवाई के बाद लेकिन अंकुरण से पहले (pre-emergence) किया जाता है। यह मिट्टी में एक परत बना देता है जो खरपतवारों के बीजों को अंकुरित होने से रोकती है।
  • सावधानियां: खरपतवारनाशकों का प्रयोग करते समय हमेशा निर्माता के निर्देशों का पालन करें। सही मात्रा और सही समय पर प्रयोग करना महत्वपूर्ण है ताकि फसल को नुकसान न हो और खरपतवारों पर प्रभावी नियंत्रण हो सके। सुरक्षा उपकरणों का उपयोग करना भी अनिवार्य है।

एकीकृत खरपतवार प्रबंधन (Integrated Weed Management): सबसे प्रभावी खरपतवार नियंत्रण के लिए, अक्सर यांत्रिक और रासायनिक विधियों का संयोजन (एकीकृत खरपतवार प्रबंधन) उपयोग किया जाता है। इसमें फसल चक्र, उचित बुवाई का समय, स्वस्थ बीज का उपयोग और खेत की स्वच्छता जैसे उपाय भी शामिल होते हैं।

खरपतवारों पर प्रभावी नियंत्रण करके, किसान यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि उनकी सब्जी मटर की फसल को सभी आवश्यक संसाधन मिलें, जिससे स्वस्थ विकास और उच्च उपज प्राप्त हो सके।


कीट व रोग का प्रबंधन

फली छेदक:
  • यह हरी मटर का मुख्य कीट है। यह कीट हरी मटर की फसल को सर्वाधिक हानि पहुंचाता है। इस कीट की इल्लियां फली में छेद करके हरे दाने को खा जाती हैं जिससे फसल को अधिक मात्रा में नुकसान होता है।
  • इस कीट की रोकथाम के लिए ट्रायजोफॉस 1.00 मिली/ली. या प्रोफेनोफॉस 0.75-1 मिली/ली. पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए।

गेरुई रोग:
  • हरी मटर का यह रोग यूरोमाइसिस फैबी नामक फफूंदी से होता है। यह रोग मटर के मुख्य रोगों में से एक है। यह रोग मटर को कभी-कभी अधिक क्षति पहुंचाता है।
  • बीज को उपचार कर बुवाई करनी चाहिए। रोग की रोकथाम के लिए डाइथेन एम 45 या डाइथेन जेड 78 के 2.25 किग्रा को 1000 ली. पानी में घोलकर/हेक्टेयर का छिड़काव करें।


हरी फली की तुड़ाई (कटाई): सामान्यतः हरी मटर में 3-4 तुड़ाई की जाती हैं। हरी मटर की फली की तुड़ाई सुबह भोर में या संध्या काल में करते हैं। इससे इसकी गुणवत्ता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। हरी मटर की फली की तुड़ाई 6-8 दिनों के अंतराल पर करते हैं। हरी मटर की परिपक्वता मापने के लिए टेंड्रोमीटर का प्रयोग करते हैं।


उपज और भंडारण: सब्जी मटर की सफल खेती का अंतिम चरण सब्जी मटर की सफल खेती में उपज (कितनी पैदावार मिली) और भंडारण (पैदावार को कैसे सुरक्षित रखा जाए) दोनों ही अंतिम लेकिन अत्यंत महत्वपूर्ण चरण हैं। इन चरणों का सही प्रबंधन यह सुनिश्चित करता है कि आपकी मेहनत का पूरा फल मिले और आपकी उपज बाजार तक सही सलामत पहुँचे।

उपज (Yield): सब्जी मटर की उपज कई कारकों पर निर्भर करती है, जैसे किस्म का चुनाव, जलवायु परिस्थितियाँ, मिट्टी का स्वास्थ्य, बुवाई का समय, उचित पोषण, और कीट व रोग नियंत्रण। सामान्य तौर पर, मटर की किस्में अपनी पकने की अवधि के अनुसार अलग-अलग उपज देती हैं:
  • अगेती किस्मों की उपज: आमतौर पर, सब्जी मटर की अगेती किस्में 3-4 टन प्रति हेक्टेयर की उपज देती हैं। ये किस्में जल्दी तैयार हो जाती हैं, जिससे किसानों को जल्दी मुनाफा कमाने का मौका मिलता है, भले ही इनकी कुल उपज मध्यम या देर से पकने वाली किस्मों की तुलना में थोड़ी कम हो।
  • मध्यम वर्गीय किस्मों की उपज: मध्यम वर्गीय किस्में 6-7 टन प्रति हेक्टेयर तक की उपज दे सकती हैं। ये किस्में आमतौर पर अगेती किस्मों की तुलना में अधिक फलदार होती हैं और बड़े दाने देती हैं, जिससे प्रति हेक्टेयर अधिक पैदावार प्राप्त होती है।

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ये आंकड़े सामान्य दिशानिर्देश हैं। बेहतर कृषि पद्धतियों और अनुकूल परिस्थितियों में उपज इन आंकड़ों से भी अधिक हो सकती है।

भंडारण (Storage): हरी मटर की फलियां जल्दी खराब होने वाली होती हैं, इसलिए उनकी गुणवत्ता बनाए रखने और बाजार तक सुरक्षित पहुंचाने के लिए उचित भंडारण बहुत ज़रूरी है।
  • भंडारण की अवधि: हरी मटर की फलियों को आमतौर पर दो सप्ताह तक ही भंडारित किया जा सकता है। इससे अधिक समय तक भंडारण करने पर उनकी गुणवत्ता, ताज़गी और पोषण मूल्य में गिरावट आ सकती है।
  • आदर्श भंडारण की स्थितियाँ: तापमान: हरी मटर के भंडारण के लिए 32°C फ़ारेनहाइट (लगभग 0°C) का तापमान आदर्श होता है। यह कम तापमान मटर में शर्करा को स्टार्च में बदलने की प्रक्रिया को धीमा कर देता है, जिससे उसकी मिठास और ताज़गी बनी रहती है। आर्द्रता (Humidity): भंडारण के दौरान 85-90 प्रतिशत आर्द्रता (relative humidity) की आवश्यकता होती है। उच्च आर्द्रता फलियों को सूखने से रोकती है और उनकी कुरकुराहट बनाए रखती है। कम आर्द्रता से फलियां मुरझा सकती हैं और उनका वजन कम हो सकता है।
  • भंडारण के अन्य पहलू: शीतलन (Pre-cooling): कटाई के तुरंत बाद मटर की फलियों को ठंडा करना (प्री-कूलिंग) उनकी शेल्फ लाइफ बढ़ाने के लिए बहुत फायदेमंद होता है। यह उनके श्वसन दर को कम करता है और गुणवत्ता गिरावट को धीमा करता है। पैकेजिंग: भंडारण और परिवहन के लिए उपयुक्त पैकेजिंग (जैसे छिद्रयुक्त बैग या बक्से) का उपयोग करना चाहिए जो हवा का संचार होने दें लेकिन नमी को बनाए रखें। प्रसंस्करण: यदि लंबी अवधि के लिए भंडारण करना हो, तो हरी मटर को फ्रीज करके या डिब्बाबंद करके प्रसंस्कृत किया जा सकता है। यह अक्सर औद्योगिक स्तर पर किया जाता है।

सही उपज अनुमान और कुशल भंडारण रणनीतियाँ किसानों को अपनी फसल का अधिकतम मूल्य प्राप्त करने और नुकसान को कम करने में मदद करती हैं, जिससे सब्जी मटर की खेती अधिक लाभदायक बनती है।


उपयोगी: मटर का प्रयोग हरी अवस्था में फलियों के रूप में सब्जी बनाने में, सूप और जमे हुए डिब्बाबंद खाद्य उत्पादों में किया जाता है। हरी मटर एक बहुत ही पोषक तत्व वाली सब्जी है। इसमें सर्वाधिक मात्रा में प्रोटीन (7.5%), विटामिन ए और बी, पोषक तत्व जैसे आयरन, मैग्नीशियम, फास्फोरस और जस्ता प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं।


चूर्णी फफूंद (पाउडरी मिल्ड्यू)
  • यह रोग कवक जनित रोग है और यह एरीसिफी पॉलीगोनी नामक फफूंदी से होता है। यह रोग अधिकतर नम मौसम में लगता है। रोग का प्रभाव प्रारंभ में पत्तियों पर सफेद चूर्ण जैसी संरचना के रूप में दिखाई पड़ता है।
  • अगेती फसलों का चयन करें और उपयुक्त समय पर बुवाई करें और साथ ही रोगरोधी फसलों का चयन करें जैसे- अर्क अजीत।
  • इस रोग की रोकथाम के लिए 3 किग्रा घुलनशील गंधक या सल्फेट को 1000 ली. पानी में घोलकर एक हेक्टेयर में छिड़काव करें।

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