गर्म और मैदानी इलाकों में सेब की सफल खेती | Grow Apples Scientifically in Plain Regions

मैदानी क्षेत्रों में सेब की बागवानी हेतु विदेशी शोध संस्थानों द्वारा कुछ प्रजातियां विकसित की गईं। इनका भारत की उपोष्ण जलवायु में परीक्षण या मूल्यांकन नहीं होने के कारण इसके बारे में जागरूकता अभी तक नहीं थी। भारतीय कृषि प्रणाली अनुसंधान संस्थान ने सेब की फसल को मैदानी क्षेत्रों में लोकप्रिय बनाने हेतु संस्थान प्रक्षेत्र में मूल्यांकन किया। इसके अंतर्गत सेब की कम शीतलन आवश्यकता वाली प्रजातियों, जिनकी पुष्पण हेतु शीतलन इकाइयों की आवश्यकता केवल 250-300 घंटों की होती है, का परीक्षण एवं मूल्यांकन उपोष्ण जलवायु में किया गया। उक्त अध्ययन से प्राप्त परिणामों में यह भ्रांति टूट गई कि सेब की बागवानी उपोष्ण जलवायुवीय क्षेत्रों में की जाए तो सफलता प्राप्त होती है। यह अध्ययन उपोष्ण क्षेत्रों में कृषि एवं बागवानी में विविधीकरण के नए विकल्प को दर्शाता है।

मैदानी एवं गर्म क्षेत्रों में बागवानी हेतु सेब की कई प्रजातियों का प्रचार-प्रसार एवं क्षेत्र विस्तार नहीं हो सका। इन प्रजातियों के मैदानी क्षेत्रों में प्रक्षेत्र मूल्यांकन के आंकड़े की अनुपलब्धता थी। कम शीतलन की आवश्यकता वाली प्रजातियों के नाम इस प्रकार हैं: अन्ना, डॉर्सेट गोल्डन, एचआर एमएन-99, इन शेमर, माइकल, वेबर्ली हिल्स, पॉलिंस ब्यूटी, ट्रॉपिकल ब्यूटी, पेटेगिल, तम्मा आदि। संस्थान में अन्ना, डॉर्सेट गोल्डन एवं माइकल प्रजाति के पौधे को लगाया गया है। इन पर हुए 4 वर्षों के अध्ययन से प्राप्त अनुभव को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।


गर्म और मैदानी इलाकों में सेब की सफल खेती  Grow Apples Scientifically in Plain Regions


अन्ना: यह सेब की दोहरी उद्देश्य वाली प्रजाति है जो गर्म जलवायु में अच्छी तरह से विकसित होती है तथा बहुत जल्दी पककर तैयार होती है। पर्वतीय क्षेत्रों में होने वाली सेब की प्रजातियों को पुष्पण एवं फलन हेतु कम से कम 450-500 घंटों की शीतलन इकाइयों की आवश्यकता होती है। इस प्रजाति के फल जून माह में परिपक्व हो जाते हैं। फलों की परिपक्वता पर रंग का विकास पीली सतह पर लाल आभा के साथ होता है। 

फल दिखने में गोल्डन डिलीशियस जैसे लगते हैं। यह शीघ्र एवं अधिक फलन वाली किस्म है। जून माह में सामान्य तापमान पर लगभग 7 दिनों तक इनका भंडारण किया जा सकता है। वर्गीकरण के अनुसार अन्ना सेब एक स्वयं बंध्य (सेल्फ स्टेराइल) प्रजाति है। अध्ययन के तीसरे वर्ष के दौरान परागणदाता किस्म डॉर्सेट गोल्डन के पौधे के पुष्पण के कारण अन्ना के वृक्षों पर फलन अधिक पाया गया। इसका तात्पर्य यह है कि अन्ना सेब की बागवानी करते समय परागण दाता प्रजाति का प्रावधान करना आवश्यक रहता है।


पौध रोपण: मैदानी क्षेत्रों में सेब की उन्नत बागवानी के लिए नींव: मैदानी क्षेत्रों में सेब की सफल बागवानी की शुरुआत सही पौध रोपण से होती है। यह प्रक्रिया जितनी सावधानी और वैज्ञानिक तरीके से की जाएगी, भविष्य में पौधों का विकास, स्वास्थ्य और फलन उतना ही बेहतर होगा। यहां पौध रोपण के हर पहलू पर विस्तार से चर्चा की गई है:

1. स्वस्थ पौध का चुनाव और अग्रिम आरक्षण (Selection and Advance Booking of Healthy Saplings): पौध रोपण का सबसे पहला और महत्वपूर्ण चरण स्वस्थ एवं विश्वसनीय पौध का चुनाव है।
  • सरकारी या मान्यता प्राप्त पौधशालाएं: "सर्वप्रथम सरकारी पौधशाला या राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड द्वारा मान्यता प्राप्त पौधशाला से पौधों का अग्रिम आरक्षण करवा लेना चाहिए।" ऐसा करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि ये पौधशालाएँ प्रमाणित और रोग मुक्त पौधे उपलब्ध कराती हैं। इनके पास कम शीतलन आवश्यकता वाली (low chilling requirement) सेब की किस्मों, जैसे 'अन्ना', 'डॉर्सेट गोल्डन', 'एचआर एमएन-99' आदि का उचित स्टॉक होता है, जो मैदानी जलवायु के लिए विशेष रूप से विकसित की गई हैं।
  • स्वस्थ पौध के लक्षण: पौध चुनते समय ध्यान दें कि पौधे स्वस्थ, मज़बूत तने वाले हों, उनमें कोई रोग या कीट का लक्षण न हो, और जड़ प्रणाली अच्छी तरह से विकसित हो। एक वर्षीय ग्राफ्टेड पौधे (grafted plants) आमतौर पर सबसे अच्छे माने जाते हैं।

2. खेत की तैयारी और मिट्टी का चुनाव (Field Preparation and Soil Selection): सही मिट्टी और खेत की तैयारी पौधों के स्थापित होने और बढ़ने के लिए आवश्यक है।
  • मिट्टी का आदर्श pH मान: "बागवानी करने वाले किसानों को यह सलाह दी जाती है कि सेब के वृक्षों के लिए पीएच-मान 6-7 आदर्श है।" यह अम्लीय से हल्की क्षारीय मिट्टी का संकेत देता है जो सेब के लिए सबसे उपयुक्त है। मिट्टी परीक्षण (soil testing) करवाना अत्यधिक अनुशंसित है ताकि pH मान और पोषक तत्वों की स्थिति का पता चल सके। यदि pH असंतुलित है, तो उसे चूना या सल्फर का उपयोग करके समायोजित किया जा सकता है।
  • जल निकास (Drainage): "मृदा में जलजमाव नहीं होना चाहिए और उचित जल निकास वाली मिट्टी खेती के लिए सबसे उपयुक्त होती है।" सेब के पौधों की जड़ें पानी के ठहराव के प्रति संवेदनशील होती हैं, जिससे जड़ सड़न (root rot) की समस्या हो सकती है। यदि खेत में जल निकास की समस्या है, तो ऊंची क्यारियां (raised beds) बनाना या जल निकास नालियां (drainage channels) बनाना आवश्यक है। दोमट मिट्टी जिसमें रेत और मिट्टी का संतुलन होता है, अच्छे जल निकास के लिए आदर्श मानी जाती है।
  • सूर्य का प्रकाश (Sunlight): "इन्हें सूर्य के प्रकाश की कम से कम 6 घंटे की आवश्यकता होती है।" सेब के पेड़ों को अच्छी वृद्धि और फलन के लिए पर्याप्त धूप मिलना आवश्यक है। खेत का चुनाव ऐसे स्थान पर करें जहां पेड़ों को पर्याप्त सीधी धूप मिल सके।

3. गड्ढे तैयार करना और पोषण प्रबंधन (Pit Preparation and Nutrient Management): पौध रोपण से पहले गड्ढे तैयार करना और उनमें पोषक तत्वों का समावेश करना महत्वपूर्ण है।
  • गड्ढे का आकार: आमतौर पर 1 मीटर x 1 मीटर x 1 मीटर (लंबाई x चौड़ाई x गहराई) के आकार के गड्ढे खोदे जाते हैं।
  • गड्ढे भरना: गड्ढों को खोदने के बाद उन्हें कुछ दिनों के लिए खुला छोड़ दें ताकि वे हवा के संपर्क में आ सकें। फिर गड्ढों को उपजाऊ ऊपरी मिट्टी, "प्रति पौधा 15 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद" (या अच्छी तरह से सड़ी हुई कम्पोस्ट), और 1-2 किलोग्राम नीम की खली (दीमक और अन्य मिट्टी जनित कीटों से बचाव के लिए) के मिश्रण से भरें। कुछ किसान इसमें थोड़ी मात्रा में सिंगल सुपर फॉस्फेट या रॉक फॉस्फेट भी मिलाते हैं।

4. रोपण का तरीका और दूरी (Planting Method and Spacing): सही रोपण दूरी पौधों को पर्याप्त जगह देती है और वायु संचार व धूप सुनिश्चित करती है।
  • वर्गाकार विधि: "सेब की प्रजातियों की चयनित प्रजातियों को वर्गाकार 5x5 या 6x6 मीटर की दूरी पर लगाना चाहिए।" यह दूरी पौधों को फैलने, जड़ें विकसित करने और मशीनरी के संचालन के लिए पर्याप्त जगह प्रदान करती है। किस्म और मूलवृंत (rootstock) की वृद्धि क्षमता के आधार पर दूरी थोड़ी भिन्न हो सकती है। सघन बागवानी (high-density planting) के लिए कम दूरी का भी उपयोग किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए विशेष प्रूनिंग और प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है।
  • रोपण की गहराई: "पौध रोपण के समय यह ध्यान रखना अति आवश्यक है कि मूलवृंत एवं शंकुर के जोड़ का स्थान एक गांठ के रूप में आसानी से दिखाई देता है कभी भी भूमि में दबना नहीं चाहिए।" यह सबसे महत्वपूर्ण बिंदुओं में से एक है। ग्राफ्ट यूनियन (जोड़ का स्थान) को हमेशा मिट्टी की सतह से 2-3 इंच ऊपर रखना चाहिए। यदि यह हिस्सा मिट्टी में दब जाता है, तो शंकुर से जड़ें विकसित हो सकती हैं, जिससे मूलवृंत के वांछित प्रभाव (जैसे बौनापन, रोग प्रतिरोधक क्षमता) समाप्त हो सकते हैं।
  • रोपण का समय: मैदानी क्षेत्रों में, जनवरी के अंत से फरवरी की शुरुआत पौध रोपण के लिए आदर्श मानी जाती है, जब न्यूनतम तापमान की आवश्यकता पूरी हो चुकी होती है और पौधे सक्रिय वृद्धि के लिए तैयार होते हैं।

5. प्रारंभिक देखभाल और प्रशिक्षण (Initial Care and Training): पौध रोपण के बाद शुरुआती देखभाल पौधों के स्थापित होने के लिए महत्वपूर्ण है।
  • तुरंत सिंचाई: पौधे लगाने के तुरंत बाद हल्की सिंचाई करें ताकि मिट्टी अच्छी तरह से बैठ जाए और जड़ों को नमी मिल सके।
  • सहारा देना (Staking): नए पौधों को हवा से होने वाले नुकसान से बचाने और सीधा बढ़ने में मदद करने के लिए उन्हें बांस या लकड़ी के सहारे से बांधना उपयोगी होता है।
  • प्रारंभिक प्रूनिंग: रोपण के समय कुछ प्रारंभिक प्रूनिंग (जैसे क्षतिग्रस्त शाखाओं को हटाना और मुख्य तने को सही ऊंचाई पर काटना) की जा सकती है ताकि पौधे को भविष्य के लिए सही आकार दिया जा सके।
  • मल्चिंग (Mulching): जड़ों के पास जैविक पलवार (जैसे पुआल, सूखी पत्तियां) बिछाना मिट्टी की नमी को बनाए रखने, खरपतवारों को दबाने और मिट्टी के तापमान को नियंत्रित करने में मदद करता है।

मैदानी क्षेत्रों में सेब की बागवानी में पौध रोपण एक विज्ञान और कला दोनों है। इन विस्तृत दिशानिर्देशों का पालन करके किसान अपने बाग को सफलतापूर्वक स्थापित कर सकते हैं और भविष्य में अच्छी उपज की उम्मीद कर सकते हैं।


पादप वृद्धि, पुष्पण एवं फलन: मैदानी क्षेत्रों में सेब की उन्नत बागवानी के लिए पादप वृद्धि (पौधे का विकास), पुष्पण (फूल आने की प्रक्रिया), और फलन (फल लगने और पकने की प्रक्रिया) को समझना और उनका उचित प्रबंधन करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। ये तीनों चरण सीधे तौर पर उपज और फल की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं।

1. पादप वृद्धि (Vegetative Growth): मैदानी क्षेत्रों में सेब के पौधों की वृद्धि पहाड़ी क्षेत्रों से थोड़ी भिन्न होती है। यहां तापमान अधिक होने के कारण पौधों को अनुकूल परिस्थितियों में तेजी से बढ़ने का अवसर मिलता है।
  • सक्रिय वृद्धि की अवधि: मैदानी इलाकों में सेब के पौधे गर्म मौसम की शुरुआत के साथ ही तेजी से वृद्धि करते हैं। यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि इस अवधि में पौधों को पर्याप्त पोषण और पानी मिले।
  • पत्तियों का झड़ना (डॉर्मेन्सी): जैसा कि पहले बताया गया है, नवंबर से जनवरी तक पौधों की लगभग 60 प्रतिशत पत्तियां गिर जाती हैं। पत्तियों के गिरने पर किसान को चिंता नहीं करनी चाहिए। यह इन पौधों को शीत ऋतु के समय न्यूनतम तापमान को सहने एवं अगले मौसम में पुष्पण लाने हेतु एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया, जिसे 'डॉर्मेन्सी' या सुप्तावस्था कहा जाता है, पहाड़ी सेब के लिए आवश्यक अधिक शीतलन घंटों की तुलना में कम होती है। मैदानी क्षेत्रों के लिए विकसित किस्में (जैसे अन्ना, डॉर्सेट गोल्डन) कम शीतलन घंटों (250-300 घंटे) में भी अपनी सुप्तावस्था पूरी कर लेती हैं।
  • प्रूनिंग (कटाई-छंटाई): स्वस्थ पादप वृद्धि के लिए प्रूनिंग आवश्यक है। मैदानी क्षेत्रों में, पत्तियों के झड़ने के बाद और फूल आने से ठीक पहले (आमतौर पर जनवरी के अंत या फरवरी की शुरुआत में) प्रूनिंग करनी चाहिए। इससे पौधे को सही आकार मिलता है, वायु संचार बेहतर होता है और नई वृद्धि व फलने वाली शाखाओं को प्रोत्साहन मिलता है। सूखी, रोगग्रस्त या आपस में उलझी हुई शाखाओं को हटाना महत्वपूर्ण है।

2. पुष्पण (Flowering): पुष्पण वह महत्वपूर्ण चरण है जब पौधे पर फूल आते हैं, जो आगे चलकर फल में परिवर्तित होते हैं। मैदानी क्षेत्रों में, पुष्पण का समय पहाड़ी क्षेत्रों की तुलना में पहले आता है।

पुष्पण का समय: मैदानी क्षेत्रों में कम शीतलन आवश्यकता वाली सेब की किस्मों पर फरवरी के अंत से मार्च की शुरुआत तक फूल आने लगते हैं। यह स्थानीय जलवायु परिस्थितियों के आधार पर थोड़ा भिन्न हो सकता है।

परागण (Pollination) का महत्व: सेब के लिए परागण एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। अधिकांश सेब की किस्में 'सेल्फ-इनकम्पैटिबल' होती हैं, जिसका अर्थ है कि उन्हें अपने ही पराग से फल नहीं लगते। उन्हें किसी अन्य संगत किस्म के पराग की आवश्यकता होती है।
  • अन्ना किस्म: जैसा कि उल्लेख किया गया है, "वर्गीकरण के अनुसार अन्ना सेब एक स्वयं बंध्य (सेल्फ स्टेराइल) प्रजाति है।" इसका मतलब है कि अन्ना के पेड़ों पर अच्छी फलन के लिए उसे परागणकर्ता किस्म की आवश्यकता होती है।
  • डॉर्सेट गोल्डन की भूमिका: "अध्ययन के तीसरे वर्ष के दौरान परागणदाता किस्म डॉर्सेट गोल्डन के पौधे के पुष्पण के कारण अन्ना के वृक्षों पर फलन अधिक पाया गया। इसका तात्पर्य यह है कि अन्ना सेब की बागवानी करते समय परागण दाता प्रजाति का प्रावधान करना आवश्यक रहता है।" यह पुष्टि करता है कि अन्ना के साथ डॉर्सेट गोल्डन जैसी परागणकर्ता किस्मों को उचित अनुपात (जैसे 20% डॉर्सेट गोल्डन के पौधे) में लगाना अत्यधिक लाभकारी है।
  • मधुमक्खियों का योगदान: परागण के लिए मधुमक्खियां और अन्य परागणकर्ता कीट महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उनके लिए अनुकूल वातावरण बनाना चाहिए और फूलों के समय रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग सावधानी से करना चाहिए।
पुष्पण से पहले देखभाल: फूलों के आने से पहले उचित सिंचाई, संतुलित पोषण और यदि आवश्यक हो तो फफूंदनाशक का छिड़काव महत्वपूर्ण है ताकि स्वस्थ फूल आ सकें।

3. फलन (Fruiting and Development): फलन की प्रक्रिया फूलों के परागण के बाद शुरू होती है, जब फूल छोटे फलों में बदलने लगते हैं और फिर पकने लगते हैं।

फल बनने की प्रक्रिया: सफल परागण के बाद, छोटे फल विकसित होने लगते हैं। इस चरण में फलों को गिरने से बचाने के लिए उचित पोषण और पानी की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है।

फल का विकास और परिपक्वता: मैदानी क्षेत्रों में तापमान अधिक होने के कारण फलों का विकास तेजी से होता है।
  • अन्ना किस्म: "इस प्रजाति के फल जून माह में परिपक्व हो जाते हैं।" पहाड़ी क्षेत्रों में सेब आमतौर पर सितंबर-अक्टूबर में पकते हैं, जबकि मैदानी क्षेत्रों में जून में ही पक जाना एक बड़ा लाभ है, जिससे किसानों को बाजार में जल्दी प्रवेश करने का अवसर मिलता है।
  • रंग और गुणवत्ता: "फलों की परिपक्वता पर रंग का विकास पीली सतह पर लाल आभा के साथ होता है।" यह दर्शाता है कि मैदानी क्षेत्रों में भी रंग और गुणवत्ता में समझौता किए बिना फल प्राप्त किए जा सकते हैं।
फल विरलन (Fruit Thinning): यदि पेड़ पर बहुत अधिक फल लग जाते हैं, तो फलों का आकार छोटा रह सकता है और उनकी गुणवत्ता प्रभावित हो सकती है। ऐसे में 'फल विरलन' की प्रक्रिया अपनाई जाती है, जिसमें अतिरिक्त फलों को हाथ से हटा दिया जाता है। इससे बचे हुए फलों को बेहतर आकार, रंग और स्वाद मिलता है।

कटाई और भंडारण: "कटाई और भंडारण" अनुभाग में विस्तार से बताया गया है कि फलों को कब काटना है और कैसे भंडारित करना है। "जून माह में सामान्य तापमान पर लगभग 7 दिनों तक इनका भंडारण किया जा सकता है।" यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि इन किस्मों की भंडारण क्षमता पहाड़ी किस्मों की तुलना में कम होती है, इसलिए कटाई के बाद तुरंत बाजार में भेजना या उचित कोल्ड स्टोरेज में रखना आवश्यक है।


कीट एवं व्याधियां: मैदानी क्षेत्रों में सेब की उन्नत बागवानी में चुनौतियाँ और समाधान: मैदानी क्षेत्रों में सेब की उन्नत बागवानी में, कीटों और बीमारियों का प्रबंधन एक महत्वपूर्ण चुनौती हो सकती है, क्योंकि यहां की गर्म और आर्द्र जलवायु कुछ कीटों और बीमारियों के लिए अधिक अनुकूल परिस्थितियाँ प्रदान कर सकती है। सफल फसल प्राप्त करने के लिए एकीकृत कीट एवं रोग प्रबंधन (IPDM) दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है। जैसा कि मूल पाठ में उल्लेख है, मैदानी क्षेत्रों में सेब को कुछ विशिष्ट कीटों और बीमारियों का सामना करना पड़ सकता है। आइए, इन पर और इनके प्रबंधन पर विस्तार से चर्चा करें:

1. प्रमुख कीट (Major Pests): मैदानी क्षेत्रों में सेब के पौधों को प्रभावित करने वाले कुछ प्रमुख कीट इस प्रकार हैं:

हेयर कैटरपिलर (Hair Caterpillar/शूलयुक्त इल्ली):
  • पहचान और क्षति: "हानिकारक कीटों में मुख्य रूप से अगस्त-सितंबर में हेयर कैटरपिलर का प्रकोप होता है।" ये इल्लियां पत्तियों को खाकर भारी नुकसान पहुंचाती हैं, जिससे प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया बाधित होती है और पौधे कमजोर हो जाते हैं। इनका प्रकोप अक्सर मानसून के बाद देखा जाता है।
  • प्रबंधन: रासायनिक नियंत्रण - "इसके बचाव हेतु डाइमेथोएट 2 मिली 1 लीटर पानी की दर से तुरंत देना चाहिए।" यह एक प्रभावी प्रणालीगत कीटनाशक है। यांत्रिक नियंत्रण - शुरुआती अवस्था में, इल्लियों के झुंड को हाथ से उठाकर नष्ट किया जा सकता है। जैविक नियंत्रण - कुछ परजीवी और शिकारी कीट इनके प्राकृतिक शत्रु होते हैं। सांस्कृतिक नियंत्रण - खेत को साफ रखना और खरपतवार मुक्त रखना भी सहायक होता है।

चूसक कीट (Sucking Pests):
  • माहू (Aphids): ये छोटे, हरे या काले रंग के कीट होते हैं जो पत्तियों और कोमल टहनियों का रस चूसते हैं, जिससे पत्तियां मुड़ जाती हैं और वृद्धि रुक जाती है। ये 'हनीड्यू' नामक चिपचिपा पदार्थ भी छोड़ते हैं, जिस पर काली फफूंद (सूटी मोल्ड) उग जाती है।
  • मिलीबग (Mealybugs): ये सफेद, रूई जैसे दिखने वाले कीट होते हैं जो तने, शाखाओं और कभी-कभी फलों पर भी रस चूसते हैं।
  • थ्रिप्स (Thrips) और सफेद मक्खी (Whiteflies): ये भी रस चूसकर पत्तियों को नुकसान पहुंचाते हैं।
  • प्रबंधन: जैविक नियंत्रण - लेडीबग बीटल (लेडीबर्ड भृंग) और लेसविंग जैसे प्राकृतिक शिकारी कीट माहू और मिलीबग को नियंत्रित करते हैं। नीम तेल (Neem Oil)3-5 मिली प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चूसक कीटों के लिए एक प्रभावी जैविक विकल्प है कीटनाशक साबुन - हल्के संक्रमण के लिए कीटनाशक साबुन का घोल उपयोग किया जा सकता है। रासायनिक नियंत्रण - गंभीर संक्रमण होने पर, इमिडाक्लोप्रिड जैसे प्रणालीगत कीटनाशकों का उपयोग विशेषज्ञ की सलाह पर करें।

फल छेदक कीट (Fruit Borers): ये कीट फलों के अंदर घुसकर उन्हें अंदर से नुकसान पहुंचाते हैं, जिससे फल सड़ने लगते हैं और बाजार में उनकी कीमत गिर जाती है।
  • प्रबंधन: प्रभावित फलों को तुरंत हटाकर नष्ट कर देना चाहिए। फेरोमोन ट्रैप का उपयोग वयस्क कीटों को आकर्षित करके उनकी आबादी को कम करने में मदद करता है। गंभीर प्रकोप में, लक्षित रासायनिक छिड़काव आवश्यक हो सकता है।

2. प्रमुख व्याधियां (Major Diseases): मैदानी क्षेत्रों में तापमान और आर्द्रता का संयोजन कुछ फंगल और बैक्टीरियल बीमारियों के लिए अनुकूल हो सकता है।

फलों में सड़न (Fruit Rot):
  • पहचान और क्षति: "जुलाई के समय बरसात के साथ कुछ फलों में सड़न की समस्या दिखाई पड़ती है।" यह आमतौर पर बरसात के मौसम में उच्च आर्द्रता और तापमान के कारण होती है। संक्रमित फलों पर भूरे या काले रंग के धब्बे दिखते हैं जो तेजी से फैलते हैं, जिससे पूरा फल सड़ जाता है।
  • प्रबंधन: रासायनिक नियंत्रण - "इसके उपचार हेतु किसी भी सुरक्षित फफूंदीनाशक कार्बेंडाजिम या थियोफेनेट मिथाइल का 0.1 प्रतिशत की दर से छिड़काव किया जा सकता है।" ये प्रणालीगत फफूंदीनाशक हैं जो रोग के प्रसार को रोकते हैं। सांस्कृतिक नियंत्रण - समय पर कटाई: "बेहतर तो यही होता है, कि बरसात के पूर्व ही फलों को तोड़ लिया जाए।" यह सडन को रोकने का सबसे प्रभावी तरीका है। गिरते और सड़े हुए फलों को तुरंत हटाकर नष्ट करें ताकि संक्रमण न फैले। पेड़ों के बीच उचित दूरी रखें और प्रूनिंग के माध्यम से वायु संचार बनाए रखें।

पाउडरी मिल्ड्यू (Powdery Mildew/चूर्णिल आसिता):
  • पहचान और क्षति: पत्तियों, शाखाओं और फूलों पर सफेद, पाउडर जैसी परत दिखाई देती है। यह प्रकाश संश्लेषण को कम करता है, पत्तियों को विकृत करता है, और फूलों और फलों के विकास को प्रभावित करता है।
  • प्रबंधन: संक्रमित टहनियों और पत्तियों को हटा दें। सल्फर-आधारित फफूंदीनाशक या माइक्लोबुटानिल जैसे प्रणालीगत फफूंदीनाशक का छिड़काव प्रभावी होता है। जैविक नियंत्रण के लिए नीम तेल का भी उपयोग किया जा सकता है।

लीफ स्पॉट/ब्लॉच (पत्ती धब्बे/झुलसा रोग): ये फंगल रोग हैं जो पत्तियों पर विभिन्न आकार और रंगों के धब्बे पैदा करते हैं, जिससे पत्तियां समय से पहले गिर जाती हैं।
  • प्रबंधन: संक्रमित पत्तियों को हटाना और नष्ट करना। तांबे-आधारित फफूंदीनाशक या अन्य संपर्क/प्रणालीगत फफूंदीनाशकों का छिड़काव।

3. एकीकृत कीट एवं रोग प्रबंधन (IPDM) रणनीति: मैदानी क्षेत्रों में सेब की सफल बागवानी के लिए केवल रासायनिक छिड़काव पर निर्भर रहने के बजाय एक एकीकृत दृष्टिकोण अपनाना चाहिए:
  • प्रतिरोधी किस्मों का चुनाव: कम शीतलन वाली किस्में चुनते समय, उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता पर भी विचार करें।
  • उचित सांस्कृतिक पद्धतियाँ: बाग की स्वच्छता बनाए रखें, गिरे हुए पत्तों और फलों को हटाकर नष्ट करें। सही समय पर और सही तरीके से प्रूनिंग करें ताकि पौधों में उचित वायु संचार बना रहे। पौधों को संतुलित पोषण दें ताकि वे मजबूत रहें और रोगों व कीटों के प्रति अधिक प्रतिरोधी हों। मिट्टी में जल निकास सुनिश्चित करें।
  • नियमित निगरानी (Scouting): खेत का नियमित रूप से निरीक्षण करें ताकि कीटों और बीमारियों के शुरुआती लक्षणों का पता चल सके। शुरुआती पहचान से छोटे स्तर पर ही प्रभावी नियंत्रण संभव होता है।
  • जैविक नियंत्रण: मित्र कीटों (जैसे लेडीबग, लेसविंग) को बढ़ावा दें जो हानिकारक कीटों का शिकार करते हैं। नीम तेल और अन्य जैविक उत्पादों का उपयोग करें।
  • यांत्रिक/भौतिक नियंत्रण: फेरोमोन ट्रैप, स्टिकी ट्रैप (चिपचिपे जाल) का उपयोग करें, और यदि संभव हो तो बड़े कीटों को हाथ से हटा दें।
  • रासायनिक नियंत्रण का विवेकपूर्ण उपयोग: रसायनों का उपयोग अंतिम उपाय के रूप में करें। सही कीटनाशक/फफूंदीनाशक का चुनाव करें और सही मात्रा में उपयोग करें। रसायनों के लगातार उपयोग से बचने के लिए सक्रिय तत्वों को बदलें (रोटेशन) ताकि कीटों और बीमारियों में प्रतिरोधक क्षमता विकसित न हो। छिड़काव हमेशा सुबह या शाम को करें और सुरक्षा सावधानियों का पालन करें। फलों की कटाई से पहले निर्दिष्ट प्रतीक्षा अवधि (PHI - Pre-Harvest Interval) का पालन करें।

मैदानी क्षेत्रों में सेब की खेती एक नई संभावना है, और कीट एवं व्याधियों का प्रभावी प्रबंधन इस संभावना को वास्तविकता में बदलने की कुंजी है। एक सक्रिय और एकीकृत रणनीति अपनाकर, किसान स्वस्थ और भरपूर सेब की फसल प्राप्त कर सकते हैं।

उपज: उन्नत विधि द्वारा स्ट्रॉबेरी उत्पादन में प्रति हेक्टेयर 120 क्विंटल उपज प्राप्त हो जाती है। इसका बाजार भाव यदि 50 रुपये कि.ग्रा. है तो 600,000 रुपये की आय प्राप्त होगी। इस आय में से कुल लागत (3,00,276 रुपये) को निकाल दिया जाए तो शुद्ध लाभ 2,99,724 प्राप्त होगा।


डॉर्सेट गोल्डन: डॉर्सेट गोल्डन सेब की गोल्डन डिलीशियस जैसी प्रजाति है। यह गर्म क्षेत्रों के लिए विकसित की गई है, जहां शीत ऋतु में 250-300 घंटों की शीतलन की इकाइयां मिल सकें। अन्ना किस्म की सफल बागवानी में यदि उचित दूरियों पर 20 प्रतिशत पौधे डॉर्सेट गोल्डन प्रजाति के लगाए जाएं जिससे पूरे बाग में उनके द्वारा उत्पन्न परागकण उपलब्ध हो सकें तो अच्छे परिणाम मिलते हैं।

Post a Comment

और नया पुराने