जलवायु परिवर्तन आज के समय की सबसे जटिल और गंभीर चुनौतियों में से एक है। यह केवल पर्यावरणीय संकट ही नहीं है, बल्कि इसके सामाजिक और आर्थिक प्रभाव भी अत्यंत व्यापक हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण हो रहे अप्रत्याशित मौसम परिवर्तन, जैसे कि असामान्य वर्षा, सूखा, बाढ़ और तापमान में वृद्धि ने किसानों के लिए नए और गंभीर संकट उत्पन्न कर दिए हैं। किसानों के पास कृषि उत्पादन के लिए प्राचीन ज्ञान और परंपरागत तरीके होते हैं। जलवायु परिवर्तन के तीव्र और अप्रत्याशित प्रभावों ने इन तरीकों को अप्रासंगिक बना दिया है। प्राकृतिक आपदाओं से आर्थिक हानि वैश्विक रूप से बढ़ रही है और कृषि क्षेत्र इन आपदाओं के लिए अत्यधिक संवेदनशील बनता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र आपदा जोखिम न्यूनीकरण कार्यालय (यू.एन.आई.एस.डी.आर.) रिपोर्ट (वर्ष 2018) के अनुसार, वर्ष 1998 से 2017 तक आपदा प्रभावित देशों में 2908 अरब डॉलर का आर्थिक नुकसान हुआ। कुल हानि में 77 प्रतिशत नुकसान जलवायु संबंधित आपदाओं के कारण हुआ। हाल के वर्षों में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव कृषि क्षेत्र पर अधिक प्रतिकूल हैं। भारत सरकार द्वारा वर्ष 2018 के आर्थिक सर्वेक्षण में अनुमान लगाया गया कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण वार्षिक हानि लगभग 9-10 अरब डॉलर थी।
जलवायु परिवर्तन का सबसे प्रत्यक्ष और गंभीर प्रभाव फसल उत्पादन पर पड़ा है। पारंपरिक मौसम चक्रों के विपरीत, अब वर्षा और तापमान में अत्यधिक अनिश्चितता और असमानताएँ देखने को मिल रही हैं।
अचानक होने वाली बेमौसम बारिश और लंबी सूखा अवधि, फसलों को अत्यधिक नुकसान पहुँचाते हैं। इससे फसल पैदावार में भारी कमी आती है। जब फसलें नष्ट होती हैं, तो किसानों के लिए यह सीधा आर्थिक नुकसान होता है। ऐसे में, किसान न केवल अपने निवेश को खो देते हैं, बल्कि उनकी वार्षिक आय भी कम हो जाती है। यह वित्तीय अस्थिरता उन्हें नए ऋण लेने के लिए मजबूर करती है, जिससे उनका आर्थिक बोझ और बढ़ जाता है।
सिंचाई और संसाधनों की लागत में वृद्धि: जलवायु परिवर्तन के कारण जल संसाधनों की उपलब्धता में कमी आई है। सूखे की बढ़ती घटनाओं के कारण किसानों को अधिक संसाधनों का प्रयोग करना पड़ रहा है। इससे उन्हें अधिक वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता होती है, जो किसानों की उत्पादन लागत को बढ़ाते हैं। इसके लिए उन्हें भारी कर्ज लेना पड़ता है। इससे किसानों की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के साथ-साथ कृषि लाभ में भी कमी आती है।
बढ़ता ऋण: जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न समस्याओं के कारण किसानों को अक्सर ऋण लेना पड़ता है। फसल की विफलता और बढ़ती उत्पादन लागत के कारण, किसान बैंकों और गैर-संस्थागत ऋणदाताओं से ऋण लेते हैं। जब किसान फसल से अपेक्षित आमदनी नहीं प्राप्त कर पाते, तो वे कर्ज चुकाने में असमर्थ हो जाते हैं। इससे कर्ज का बोझ बढ़ता है और कई बार यह स्थिति किसानों के लिए गंभीर कदम उठाने की ओर भी ले जाती है। यह न केवल व्यक्तिगत त्रासदी है, बल्कि समाज और अर्थव्यवस्था के लिए भी एक गंभीर समस्या है।
नीतियां
प्रभावी सिंचाई तकनीकों का प्रयोग: किसानों को सस्ती और प्रभावी सिंचाई तकनीकों का उपयोग करना चाहिए, जैसे कि ड्रिप सिंचाई और स्प्रिंकलर प्रणाली। ये तकनीकें जलवायु अनुकूल हैं और समय की बचत करती हैं। इससे सिंचाई की लागत को कम करके किसानों की वित्तीय स्थिति में सुधार लाया जा सकता है। इसके अलावा, वर्षा जल संचयन जैसी पारंपरिक तकनीकों का पुनरुत्थान भी जल की उपलब्धता सुनिश्चित करने में मदद कर सकता है।
गुजरात और राजस्थान के कई क्षेत्रों में किसानों ने वर्षा जल संचयन के लिए तालाब और कुओं का पुनर्निर्माण किया है, जिससे उनकी सिंचाई की समस्याएँ काफी हद तक हल हो गई हैं।
समुदाय आधारित संसाधन प्रबंधन: किसानों को समुदाय आधारित संसाधन प्रबंधन की पहल में शामिल होना अत्यंत आवश्यक है। यह पहल स्थानीय संसाधनों के सामूहिक उपयोग और प्रबंधन को बढ़ावा देती है, जिससे उत्पादन लागत कम होने के साथ-साथ वित्तीय लाभ भी बढ़ता है। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र के कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों ने समूह बनाकर जल प्रबंधन और सिंचाई के संसाधनों का सामूहिक प्रबंधन शुरू किया है। इससे न केवल जल की उपलब्धता बढ़ी है, बल्कि उत्पादन लागत भी कम हुई है, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ है।
सरकारी योजनाएं
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना: प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना किसानों को फसल नुकसान के मामले में वित्तीय सुरक्षा प्रदान करती है। इस योजना के तहत, किसानों को नाममात्र के प्रीमियम पर व्यापक बीमा कवरेज मिलता है, जो उन्हें प्राकृतिक आपदाओं के कारण होने वाले वित्तीय नुकसान से बचाता है। यह योजना विशेष रूप से छोटे और सीमांत किसानों के लिए बनाई गई है, जिनकी आर्थिक स्थिति किसी भी तरह के फसल नुकसान को सहन करने की अनुमति नहीं देती।
प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना: प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना का उद्देश्य सिंचाई सुविधाओं का विस्तार करना और जल संसाधनों का कुशल प्रबंधन करना है। इस योजना के तहत, किसानों को सस्ती और प्रभावी सिंचाई तकनीकों के लिए वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है। इससे उनकी उत्पादन लागत में कमी आती है। इसके अलावा, इस योजना के तहत, जल संचयन और संरक्षण के प्रयासों को भी प्रोत्साहन मिलता है, जिससे जल की उपलब्धता सुनिश्चित होती है।
मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना: इस योजना का उद्देश्य किसानों को उनकी मृदा के स्वास्थ्य के बारे में जानकारी प्रदान करना है। मृदा स्वास्थ्य कार्ड के माध्यम से, किसानों को यह जानकारी मिलती है कि उनकी मृदा के लिए कौन से उर्वरक और फसलें सबसे उपयुक्त हैं। इससे किसानों की उर्वरक लागत कम होती है और फसलों की पैदावार बढ़ती है, जिससे उनकी आय में सुधार होता है। यह योजना विशेष रूप से उन क्षेत्रों में महत्वपूर्ण है जहाँ मृदा की उर्वरकशक्ति कम हो रही है।
राष्ट्रीय कृषि बाजार ई-नाम: ई-नाम का उद्देश्य किसानों को एक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म प्रदान करना है, जहाँ वे अपनी फसलें सीधे खरीदारों को बेच सकते हैं। इससे बिचौलियों की भूमिका कम होती है और किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य मिलता है, जिससे वित्तीय स्थिति में सुधार होता है। यह योजना विशेष रूप से छोटे किसानों के लिए लाभदायक है, जो पारंपरिक बाजारों में अपनी उपज बेचने में कठिनाई का सामना करते हैं।
जलवायु अनुकूल कृषि पद्धतियां: किसान जलवायु अनुकूल कृषि पद्धतियों को अपनाकर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपट सकते हैं। इसमें फसल चक्र, मिश्रित खेती और सूखा प्रतिरोधी फसलों को भी अपनाया जा सकता है। किसानों द्वारा समय-समय पर फसल चक्र अपनाने से मृदा की उर्वरकशक्ति बनी रहती है और फसलों को प्रतिकूल परिस्थितियों से बचाने में मदद मिलती है। उदाहरण के लिए, दक्षिण भारत में कई किसान अब धान के साथ मछली पालन कर रहे हैं, जिससे उनकी आय में विविधता आ रही है और वित्तीय स्थिरता बढ़ रही है। सूखा प्रतिरोधी फसलें, जैसे कि बाजरा और ज्वार, की खेती भी जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने में अहम योगदान दे रही है।
बीज और कृषि आदानों की लागत में वृद्धि: जलवायु परिवर्तन के साथ अनुकूलित बीज और उर्वरकों की मांग में वृद्धि हुई है। किसानों को ऐसी फसलों की आवश्यकता होती है जो प्रतिकूल मौसम की स्थितियों में भी जीवित रह सकें और अच्छी पैदावार दे सकें। इस प्रकार के बीज और उर्वरक महंगे होते हैं। इसके अतिरिक्त, जैविक और जैव-प्रौद्योगिकी आधारित आदानों की उच्च लागत भी किसानों की वित्तीय चुनौतियों को बढ़ाती है। छोटे और सीमांत किसान अक्सर इन महंगे आदानों को वहन करने में असमर्थ होते हैं, जिससे उनकी फसल उत्पादकता और गुणवत्ता पर असर पड़ता है। उदाहरण के लिए, पंजाब और हरियाणा के किसान, जो पारंपरिक रूप से धान और गेहूँ की खेती करते थे, अब महंगे संकर बीजों का उपयोग करने के लिए मजबूर हैं, जिससे उनकी उत्पादन लागत में वृद्धि हो रही है।
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