ग्लेडियोलस एक बहुत ही महत्वपूर्ण और लोकप्रिय पुष्पीय और एकवर्षीय पौधा है जो मुख्य रूप से घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कटे फूलों के रूप में प्रसिद्ध है। कन्दीय फूलों में ग्लेडियोलस को "Queen" (कन्दीय फूलों की रानी) कहा जाता है। घरेलू और अंतरराष्ट्रीय, खासकर यूरोपीय देशों में, इसकी शरद ऋतु में बहुत मांग है। इसके फूलों और घन कंदों की मांग दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। इसे अधिक पैसे देने वाला फूल भी कहा जाता है। भारतीय समाज के मध्यम वर्ग के लोगों के जीवन स्तर में सुधार और मासिक आय में वृद्धि होने से पिछले कई वर्षों से ग्लेडियोलस का क्षेत्रफल, उत्पादन और बाजार मांग लगातार बढ़ती जा रही है। इसे घरेलू आवश्यकताओं के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय बाजारों में बेचने की पर्याप्त संभावनाएं हैं। इस फूल को 25-30 वर्ष पहले शीतोष्ण राज्य, खासतौर पर पहाड़ों पर उगने वाली फसल कहा जाता था, विशेष रूप से उत्तर-पूर्वी राज्य। परन्तु, उन्नत सस्य क्रियाओं, तकनीक और अच्छे फसल प्रबंधन के कारण इसे अब दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक में व्यावसायिक तौर पर उगाया जाता है। इसके अतिरिक्त, इसे क्यारियों में प्रदर्शनी, गमले और गार्डन में आसानी से उगाया जा सकता है।
आकर्षक ग्लेडियोलस के फूलों का उपयोग शादी विवाह एवं अन्य सामाजिक, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बहुतायत से होता है, बुके तथा घरों के अंदर सजावटी तौर पर एवं नव वर्ष, बड़ा दिन, मदर्स डे, वैलेंटाइन डे, जन्मदिन, होली, दिवाली, दशहरा तथा दूसरे सामाजिक एवं सरकारी कार्यों में होता है। अधिक मांग एवं उपयोग के कारण, यह एक व्यावसायिक फूल बन चुका है। इसकी आकर्षक स्पाइक्स जिनमें फ्लोरेट्स पर्याप्त मात्रा में होते हैं, जो विभिन्न प्रकार के रंग तथा आकार में मिलते हैं। इसके फूलों को रखने की क्षमता तथा गुणवत्ता काफी अधिक एवं अच्छी होती है। इसी के कारण यह घरेलू या भारतीय बाजार में प्रसिद्ध हुआ।
जलवायु: ग्लेडियोलस की वृद्धि एवं विकास के लिए, एक निश्चित प्रकार की जलवायु की आवश्यकता होती है जिसमें तापमान, प्रकाश की अवधि एवं पानी मुख्य हैं। क्योंकि यह एक शरद ऋतु में उगने वाला पौधा है। इसकी खेती के लिए कम से कम तापमान 16 डिग्री सेल्सियस तथा अधिकतम 25 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए। खुले प्रकाश के स्थानों पर इसमें जल्दी बढ़वार होती है। मध्यम जलवायु इसकी खेती के लिए आदर्श मानी जाती है। इसे अधिक गर्मी एवं अधिक सर्दी हानि पहुंचाते हैं। यदि सर्दियों में तापमान 6 डिग्री सेल्सियस से नीचे चला जाए तो पाले से फ्रॉस्ट इंजरी हो जाती है। सामान्यतः यह सभी प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है, परंतु दोमट मिट्टी जिसका पीएच मान 5.5 से 6.5 हो, अच्छी मानी जाती है।
खेत की तैयारी, बुवाई एवं खाद: खेत में गोबर की सड़ी खाद 25-30 टन प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में मिला दें तथा खेत को चार-पांच बार लगभग 15-20 सेंटीमीटर गहराई तक कल्टीवेटर तथा रोटावेटर से जुताई करके समतल कर लें, ऐसा करने से मिट्टी की संरचना एवं उर्वरता में सुधार होगा। परिणाम स्वरूप, अच्छा उत्पादन होगा। ग्लेडियोलस लगाने का सबसे अच्छा समय दिल्ली के आसपास पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा हरियाणा में सितंबर के अंतिम सप्ताह से अक्टूबर के मध्य तक लगाने से अच्छी उपज व गुणवत्ता के फूल प्राप्त होंगे। खाद एवं उर्वरक को मिट्टी की जांच करवाकर निश्चित करें, परंतु सामान्य तौर पर 100-120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 80-100 किलोग्राम फास्फोरस तथा 100 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर डालना चाहिए।
किस्में:
- भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा विकसित प्रजातियां: पूसा रजत, पूसा सिंदूरी, पूसा रेड वैलेंटाइन, पूसा मनमोहक, पूसा शुभम, पूसा विदुषी, पूसा सृजना, पूसा उन्नति, पूसा शांति।
- भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान, बेंगलुरु द्वारा विकसित प्रजातियां: अर्का अमर, अर्का प्रथम, अर्का गोल्ड, अर्का रजनी।
- राष्ट्रीय वानस्पतिक अनुसंधान संस्थान, लखनऊ द्वारा विकसित प्रजातियां: अर्चना, गजल, ज्वाला, मनोहर, मनीषा, मोहिनी, त्रिलोकी।
- पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना द्वारा विकसित प्रजातियां: पंजाब मोहिनी, पंजाब श्यामली, पंजाब फ्लेम, पंजाब एलिगेंस, पंजाब लेमन डिलाइट।
- विदेशी किस्में: हंटिंग सॉन्ग, पीटर पियर्स, अमेरिकन ब्यूटी, स्नो प्रिंसेस, प्रिसिला।
घनकंदों की आवश्यकता एवं दूरी: घनकंदों की मात्रा कई बातों पर निर्भर करती है जैसे कि पौधे की दूरी, घनकंद का आकार, लगाने का तरीका आदि। सामान्यतः 50-60 हजार घनकंद प्रति एकड़ पर्याप्त होते हैं। पौधे से पौधे की 15 सेंटीमीटर, पंक्ति से पंक्ति की दूरी 50 सेंटीमीटर तथा 8-10 सेंटीमीटर गहराई पर बोना चाहिए। घनकंद का आकार भी 4-6 सेंटीमीटर हो तो अच्छी गुणवत्ता के फूल उत्पादित होंगे।
निराई-गुड़ाई, सिंचाई एवं मिट्टी चढ़ाना: खरपतवार ग्लेडियोलस की मुख्य फसल से स्थान, प्रकाश, पोषक तत्व तथा पानी के लिए प्रतिस्पर्धा करते रहते हैं। इन्हें समय से नियंत्रण नहीं किया गया तो ये कीट एवं रोगों को आकर्षित करते हैं। इनका समय से नियंत्रण करना बहुत जरूरी है।
ग्लेडियोलस में खरपतवारों को निराई-गुड़ाई के अतिरिक्त रासायनिक दवा जैसे स्टैंप/पेंडीमेथालिन का 0.04 प्रतिशत घोल बनाकर बोने के तुरंत बाद एक परत के रूप में छिड़काव करने से खेत में 2-3 महीने तक खरपतवारों से राहत मिल सकती है। सिंचाई आवश्यकता अनुसार सर्दियों में 12-15 दिनों के अंतर से करनी चाहिए। बोने के 40-45 दिनों बाद कतारों में मिट्टी चढ़ा दी जाती है।
फूलों की स्पाइक काटना एवं घनकंदों की खुदाई: अगर फूलों को कहीं दूर बाजार में ले जाना हो तो प्रथम फ्लोरेट्स खुलने लगे उस समय तेज चाकू या कैंची से नीचे की 3 या 4 पत्तियां छोड़कर स्पाइक काटना चाहिए और 24 स्पाइकों का बंडल बनाकर उन्हें धागे या रबर बैंड की सहायता से बांध देते हैं तथा बंडलों को 120×60×30 सेंटीमीटर के आकार के बक्सों में रखकर जिनमें जगह-जगह छिद्र बने हों, में पैकिंग करके बाजार में रेफ्रिजरेटेड ट्रक में लोड कर भेज दिया जाता है।
फूल आने के डेढ़-दो महीने बाद जब पत्तियों का रंग फीका या सूखने लगता है तो घनकंदों को खोद लिया जाता है। बाद में घनकंदों को बाविस्टिन के 2% प्रतिशत घोल में 30-40 मिनट तक डुबोकर उपचारित करें तथा छाया में सुखाएं। इसके बाद कोल्ड स्टोरेज में 4-5 डिग्री सेल्सियस तापमान पर ढाई-तीन महीने तक रखा जाता है जिससे उनकी सुषुप्तावस्था खत्म हो सके।
पैदावार एवं आय: फूलों की पैदावार पौधे की दूरी, घनकंदों के आकार, मिट्टी की उर्वरता एवं मौसम के अनुसार सभी कर्षण क्रियाएं सुचारू रूप से की हों तो ढाई लाख फूलों की स्पाइक प्रति हेक्टेयर प्राप्त हो जाती हैं और उतने ही करीब घनकंद उत्पादित होंगे। यदि आय-व्यय का हिसाब लगाया जाए तो चार लाख रुपए तक एक हेक्टेयर से आमदनी मिल सकती है। परंतु यह सब बाजार भाव पर निर्भर करता है। पहले साल के बाद दूसरे और तीसरे वर्ष में भी आय बढ़ती जाती है।
कीट एवं रोगों की रोकथाम: ग्लेडियोलस की खड़ी फसल में हानि पहुंचाने वाले बहुत से कीट हैं जैसे माहू, तना बेधक, लूपर्स, थ्रिप्स आदि। इनकी रोकथाम 0.2 प्रतिशत मैलाथियान/मेटासिस्टॉक्स या नुवान से की जा सकती है। ग्लेडियोलस में एक ही रोग बहुत हानिकारक है जिसे फ्यूजेरियम विल्ट या कंद विगलन कहते हैं। इसके प्रकोप से कंद सड़ जाते हैं, पत्ती एवं तने विकृत हो जाते हैं तथा बाहरी पत्तियां पीली पड़ जाती हैं। फूलों का रंग हल्का पड़ जाता है। इसकी रोकथाम के लिए घनकंदों को बोने से पूर्व 0.3 प्रतिशत बाविस्टिन के घोल में 30-40 मिनट तक रखते हैं तथा छाया में सुखाकर बोना चाहिए। खड़ी फसल में एक बार डाइथेन एम-45 तो दूसरी बार बाविस्टिन के घोल का 0.2 प्रतिशत का छिड़काव फूल आने से पहले 15-20 दिनों पर करते रहना चाहिए, जिससे फूलों की गुणवत्ता बनी रहेगी तथा रोग भी नहीं आएंगे।
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