भारत में जनवरी-फरवरी की बागवानी: फल, सब्जियां और फूल | January & February Gardening

भारत विभिन्न ऋतुओं का देश है, जहाँ हर ऋतु मानो धरा का श्रृंगार करती है। शीत ऋतु में पर्वत श्रृंखलाएँ बर्फ की सफेद चादर ओढ़ लेती हैं और मैदानी भाग कोहरे से ढक जाते हैं। इस समय हवाएँ उत्तर-पूर्वी भूमि से समुद्र की ओर बहती हैं, जिससे सामान्यतः मौसम शुष्क रहता है। हालाँकि, भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग में पश्चिमी विक्षोभ के कारण हल्की वर्षा भी होती है। जैसे-जैसे वर्ष 2025 की ओर बढ़ रहे हैं, यह समझना पहले से अधिक महत्वपूर्ण हो गया है कि जलवायु घटनाएँ हमारे पर्यावरण और आजीविका को कैसे प्रभावित करेंगी। वर्ष 2024 में सक्रिय अल नीनो की स्थिति ने मौसम पर अपना प्रभाव डाला है, और पूर्वानुमान बताता है कि वर्ष 2025 में नई मौसमी परिस्थितियों का आरंभ हो सकता है। इसमें ला नीना या तटस्थ अल नीनो दक्षिणी दोलन (ईएनएसओ) स्थितियों की वापसी सम्मिलित है। फरवरी से मई, वर्ष 2025 के दौरान ला नीना के प्रभावी रहने की आशंका 55-58 प्रतिशत है, जबकि तटस्थ स्थितियों की आशंका 40-42 प्रतिशत के आसपास बनी रहेगी। प्रशांत महासागर में प्रचलित अल नीनो की स्थिति भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून वर्षा पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है, जो देश की आर्थिक स्थिति और कृषि क्षेत्र के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है।

जनवरी के मध्य में खरीफ फसलों की कटाई को देश भर में संक्रांति, लोहड़ी, बिहू, पोंगल जैसे त्योहारों के रूप में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। शीत ऋतु के शुरुआती दिनों में कड़ाके की ठंड पड़ती है, जबकि फरवरी में वसंत ऋतु के आगमन से ठंड और कोहरे से राहत मिलती है। जिस प्रकार ठंड के बाद वसंत का आनंद मिलता है, उसी प्रकार जीवन में संघर्ष के बाद सफलता का सुख प्राप्त होता है। इस प्रेरणादायक संदेश के साथ यह कहना उचित है कि इस समय बागवानी गतिविधियों को पूरी तत्परता से संपन्न करना आवश्यक है। 

शीत ऋतु के दौरान की गई अंतःस्यन गतिविधियों का पौधों की उत्तरजीविता और फलन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। ठंड का मौसम विशेष रूप से शीतोष्ण फलों के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह उनकी द्रुतशीतन आवश्यकताओं (चिलिंग रिक्वायरमेंट्स) को पूरा करता है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति न होने पर शीतोष्ण वृक्षों में उचित कलिका फुटाव और फलन प्रभावित होता है। इस अवधि में कई फल वृक्षों में पुष्पन की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। इससे यह द्विमाह उत्पादन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण बन जाती है। साथ ही, नवस्थापित बागों की देखभाल, निराई-गुड़ाई, सिंचाई, उर्वरक और कीट-रोग प्रबंधन जैसे कार्यों पर भी विशेष ध्यान देना चाहिए। फलों की उच्च गुणवत्ता के उत्पादन के लिए बगीचों की समुचित देखभाल आवश्यक है। आज किया गया श्रम भविष्य में सफलता के मीठे फल प्रदान करेगा, जिससे बागवान का मन आनंदित हो उठेगा। महत्वपूर्ण फलों में जनवरी-फरवरी माह में की जाने वाली प्रमुख कृषि क्रियाओं का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है।


भारत में जनवरी-फरवरी की बागवानी फल, सब्जियां और फूल  January & February Gardening


आम: जनवरी में नर्सरी के पौधों को पाले से बचाने के लिए छप्पर से ढकना चाहिए। नवस्थापित बागानों में छोटे पौधों को पुआल से ढक दें, तीन तरफ से पौधों को सुरक्षित रखते हुए दक्षिण-पूर्व दिशा में सूर्य के प्रकाश और हवा के लिए स्थान खुला छोड़ें। पाले से सुरक्षा के लिए बागों में समय-समय पर हल्की सिंचाई करें। निराई-गुड़ाई और सफाई का कार्य करें तथा नवरोपित आम के बागों में सिंचाई सुनिश्चित करें। इस समय आने वाले बौरों की देखभाल अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि इन्हीं पर फलोत्पादन निर्भर करता है।

जनवरी के पहले सप्ताह में आने वाले बौर आमतौर पर फल नहीं देते और गुच्छे का रूप ले लेते हैं। ऐसे बौर को हटा देना चाहिए। आम के लिए उर्वरक देने का यह उपयुक्त समय है। इसके लिए प्रति पौधा 500 ग्राम नाइट्रोजन, 500 ग्राम फास्फोरस और 700 ग्राम पोटाश का प्रयोग करें। उर्वरकों को मिट्टी में मिलाकर हल्की सिंचाई करें। फरवरी में बागों में थालों की निराई-गुड़ाई करें। फरवरी के
अंत में फुदका या तेला (मैंगो हॉपर) कीट के नियंत्रण हेतु 0.3 प्रतिशत इमिडाक्लोप्रिड का छिड़काव करें।

चूर्णिल आसिता रोग से बचाव के लिए 20 ग्राम केराथेन (प्रति 100 लीटर पानी) या 2 ग्राम घुलनशील गंधक (प्रति लीटर पानी) अथवा 0.1 प्रतिशत हेक्साकोनाजोल के घोल का छिड़काव करें। फरवरी के अंत में छोटे पौधों से छप्पर हटा दें। मिली बग (गुजिया) से बचाव के लिए वृक्ष के तने पर 3 फुट
चौड़ी पॉलीथीन की पट्टी बांधें। साथ ही, 1.5 प्रतिशत क्लोरोपाइरीफॉस धूल (250 ग्राम प्रति वृक्ष) को मिट्टी में मिलाएं। भूमि की सतह पर ब्यूवेरिया बेसियाना (2 ग्राम प्रति लीटर, 10⁷ बीजाणु प्रति मि.ली.) या 5 प्रतिशत नीम बीज के सत्त का उपयोग वयस्क कीटों को मारने के लिए करें। ध्यान रखें, इस समय पौधों पर फूल आते हैं। यदि किसी भी कीटनाशक का प्रयोग फूलों पर किया गया, तो परागण में बाधा आने से फलन कम हो सकता है।


केला: जनवरी के पहले और तीसरे सप्ताह में सिंचाई करें ताकि फसलों को पाले से बचाया जा सके। पाले से सुरक्षा के लिए किसी मल्च सामग्री का उपयोग करें और बागों में शाम के समय धुआं करें। यदि पौधों को सहारा न दिया गया हो, तो बांस के डंडों से सहारा प्रदान करें। जनवरी में उत्तर भारत में अत्यधिक ठंड के कारण केले जैसी फलदार फसलों के विकास पर प्रभाव पड़ता है, जिससे फल रोगग्रस्त दिखाई देते हैं। फरवरी माह में तापमान बढ़ने के साथ बागों पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। ठंड की अधिकता के कारण केले की अधिकतर पत्तियां सूख जाती हैं। सभी सूखी और रोगग्रस्त पत्तियों को काटकर खेत से बाहर कर दें ताकि रोग का प्रसार कम हो। केवल एक तलवार पत्ती (भूपृष्ठीय तना) को छोड़कर बाकी सभी पत्तियों को पौधे के आधार से हटा दें।

फरवरी के पहले और तीसरे सप्ताह में सिंचाई करें। नाइट्रोजन की 60 ग्राम मात्रा को 10 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें। बागों की निराई-गुड़ाई और सफाई का कार्य करें। यदि सिंचाई की सुविधा हो, तो फरवरी माह में केले की रोपाई की जा सकती है। इसके लिए फफूंद, विषाणु और जीवाणु रोग से मुक्त मातृ पौधों से तलवार पत्ती वाले भूपृष्ठीय तनों का चयन करें। नैंद्रन, रसथली, नेय पूवन और पूवन जैसी किस्मों के लिए 3-5 माह पुराने, समान आकार के, 1-1.5 किलोग्राम वजन के भूपृष्ठीय तनों का उपयोग करें। जबकि कपूरवल्ली और लाल केले जैसी लंबी अवधि की किस्मों के लिए, 1.5-2.0 किलोग्राम वजन के बड़े भूपृष्ठीय तनों का चयन करें। सूक्ष्म प्रवर्धित पौधे लगभग 30 से.मी. लंबे हों कम से कम पांच पूरी तरह खुले स्वस्थ पत्तों के साथ हों और जड़ें 5 से.मी. लंबी हों। रोपाई से पहले, प्रकंदों की जड़ों को धोकर क्लोरोपाइरीफॉस (20 ईसी) 2.5 मि.ली./ली. पानी के घोल में डुबोएं। 

फसल को प्रकंद सुंडी और सूत्रकृमि से बचाने के लिए, कार्बाफ्यूरान (3 प्रतिशत सीजी) 50 ग्राम प्रति पौधा के अनुसार जड़ों को उपचारित करें और फिर 72 घंटे तक छांव में सुखाएं।

फ्यूजेरियम म्लानि रोग की रोकथाम के लिए जड़ों को कार्बेन्डाजिम (2 ग्राम प्रति लीटर पानी) में 15-20 मिनट तक डुबोएं। केले की रोपाई 45 x 45 x 45 से.मी. या 60 x 60 x 60 से.मी. आकार के गड्ढों में
करें। गड्ढों को कुछ समय के लिए धूप में खुला छोड़ दें ताकि हानिकारक कीट नष्ट हो जाएं। गड्ढों को 10 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद और 250 ग्राम नीम की खली से भरें। जड़ों को गड्ढे के केंद्र में रोपें और चारों ओर की मिट्टी को अच्छी तरह दबाएं। गहरी रोपाई न करें।


अमरूद: जनवरी और फरवरी के दौरान अमरूद के बागों में फलों की तुड़ाई का कार्य जारी रखें। तुड़ाई का सबसे उपयुक्त समय सुबह का है। फलों को उनकी किस्मों के अनुसार अधिकतम आकार और परिपक्व हरे रंग के समय तोड़ें, जब सतह का रंग गाढ़े से हल्के हरे में बदलने लगे। इस समय फलों से हल्की सुगंध आती है, जो परिपक्वता का संकेत है। अत्यधिक पके फलों को अन्य फलों से
अलग रखें। फलों को अखबार में पैक करने से उनका रंग और भंडारण क्षमता बेहतर होती
है। फलों को एक-दूसरे से रगड़ने से बचाने के लिए बक्से के आकार के अनुसार फलों की संख्या निर्धारित करें। पत्तियों पर कथई रंग का आना सूक्ष्म तत्वों की कमी का संकेत है। ऐसे में कॉपर सल्फेट और जिंक सल्फेट का 0.4 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव करें।

फरवरी में आने वाले फूलों को तोड़ दें ताकि वर्षा ऋतु की कम गुणवत्ता वाली फसल की बजाय सर्दियों की उच्च गुणवत्ता वाली फसल प्राप्त हो सके। नेफ्थलीन एसिटिक अम्ल (100 पीपीएम) का छिड़काव करें और सिंचाई की मात्रा कम कर दें। फरवरी के दूसरे पखवाड़े में छंटाई का कार्य शुरू करें और इसे मार्च के पहले सप्ताह तक पूरा करें। पिछले मौसम की विकसित शाखाओं के 10-15 से.मी. अग्र भाग को काटें और टूटी, रोगग्रस्त तथा उलझी शाखाओं को हटा दें। कटाई के बाद, कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (2-3 प्रतिशत) का छिड़काव करें या बोर्डो पेस्ट का लेप कटे हुए भाग पर करें। बागों की निराई-गुड़ाई और सफाई का कार्य करें तथा नवरोपित बागों की सिंचाई सुनिश्चित करें। इन उपायों से अमरूद के बागों की गुणवत्ता और उत्पादन में सुधार किया जा सकता है।


अंगूर: अंगूर के अच्छे उत्पादन के लिए वार्षिक काट-छांट आवश्यक है। उत्तरी भारत में जनवरी माह इस कार्य के लिए सबसे उपयुक्त होता है। काट-छांट से 15 दिनों पूर्व 2-5 मि.ली. इथेफोन का छिड़काव कर पर्णपात सुनिश्चित करें। चूंकि अंगूर के गुच्छे नई टहनियों पर लगते हैं, पिछले वर्ष की
टहनियों को किस्म की ओजस्विता के अनुसार उचित लंबाई तक काटना आवश्यक है। ब्यूटी सीडलेस को 2-3, परलेट को 3-4, पूसा उर्वशी और पूसा नवरंग को 4-6 तथा पूसा सीडलेस और थॉमसन सीडलेस को 9-12 कलिकाओं तक काटें। काट-छांट के बाद कटे भागों पर 1 प्रतिशत बोर्डो मिश्रण का
उपचार करें ताकि रोगों से बचाव हो सके। कल्लों के समरूप फुटाव के लिए कलम पौधों पर 1.5 प्रतिशत और कर्तन से तैयार पौधों पर 1 प्रतिशत हाइड्रोजन सायनामाइड का उपयोग करें। यह रसायन डोर्मेक्स या डोब्रेक के नाम से बाजार में उपलब्ध है। वैकल्पिक रूप से 2 प्रतिशत थायो यूरिया का तीन बार छिड़काव करने से कलिकाओं का प्रस्फुटन जल्दी होता है।

फसल को मिली बग, थ्रिप्स और चींटियों से बचाव के लिए मृदा में मेटारिजियम एनिसोप्लिया और ब्यूवेरिया बेसियाना (2 × 10⁸ बीजाणु प्रति मिली) के 2-2 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से उपचार करें। भृंग के प्रकोप की स्थिति में 0.4 मि.ली./ली. पानी में इमिडाक्लोप्रिड का छिड़काव करें। पहले वर्ष
प्रति पौधा गोबर या कंपोस्ट खाद के अलावा 100 ग्राम नाइट्रोजन, 60 ग्राम फास्फोरस और 80 ग्राम पोटाश दें। पांच वर्ष या अधिक उम्र के पौधों के लिए यह मात्रा बढ़ाकर 500 ग्राम नाइट्रोजन, 300 ग्राम फास्फोरस और 400 ग्राम पोटाश कर दें। फास्फोरस की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन व पोटाश की आधी मात्रा काट-छांट के तुरंत बाद दें, एवं हल्की सिंचाई करें। कटी हुई शाखाओं से 30-40 से.मी. लंबी कलमें तैयार करें। इन्हें 10-15 दिनों तक नम भूमि में दबाने के बाद पौधशाला में लगाएं। बेहतर परिणाम के लिए कलमों को 500-1000 पीपीएम इंडोल ब्यूटाइरिक अम्ल से उपचारित करें।

जनवरी-फरवरी, उत्तरी भारत में अंगूर के नए बाग लगाने का उपयुक्त समय है। फरवरी में चूर्णी फफूंदी रोग से बचाव के लिए केराथेन (0.1 प्रतिशत) का छिड़काव करें। तीन पत्तियों वाली अवस्था पर पौधों पर 2 ग्राम प्रति लीटर ट्राइकोडर्मा का छिड़काव करें। यह मृदुल और चूर्णी फफूंदी दोनों रोगों से बचाव में प्रभावी है। बागों की निराई-गुड़ाई और सफाई सुनिश्चित करें।


पपीता: पपीते को पाले से बचाने के लिए जनवरी माह में विशेष प्रबंध करें। पौधों को पुआल अथवा कपड़ों से ढकें और नियमित सिंचाई करते रहें। पुआल को फरवरी के अंत में हटा दें। फरवरी में प्रति पौधा 25 ग्राम नाइट्रोजन, 50 ग्राम फास्फोरस, और 100 ग्राम पोटाश का प्रयोग करें। बागों की निराई-गुड़ाई और सफाई सुनिश्चित करें। प्रवर्धन के लिए, फरवरी से मार्च तक बीजों की बुवाई की जा सकती है। बुवाई से पहले बीजों का शोधन अवश्य करें।

सिंचाई की सुविधा होने पर फरवरी माह में पौधों की रोपाई की जा सकती है, इसे संध्या के समय करना बेहतर होता है। रोपाई के बाद हल्की सिंचाई करें और पौधे की अच्छी स्थापना तक प्रतिदिन सिंचाई जारी रखें। पपीते पर मिट्टी चढ़ाना आवश्यक है। प्रत्येक गड्ढे में एक पौधा लगाकर जड़ों के आसपास
30 से.मी. की गोलाई में मिट्टी ऊंची करें, ताकि सिंचाई का पानी जड़ों के पास जमा न हो और पौधा सीधा खड़ा रह सके। खेत को खरपतवार से मुक्त रखें और जनवरी-फरवरी में हाथों से गुड़ाई करें।


लीची: जनवरी में लीची के पौधों को पाले से बचाने के लिए उचित प्रबंध अवश्य करें। फरवरी में लीची के फूल आने के समय सिंचाई न करें, क्योंकि इससे फूलों के गिरने की आशंका होती है। हालाँकि, फूल आने से पहले और बाद में सिंचाई की समुचित व्यवस्था करें। चूर्णी फफूंदी रोग के प्रकोप से बचाव के लिए संस्तुत रसायनों का प्रयोग करें। फुदका कीट से बचाव हेतु 0.7-1.0 मिली प्रति लीटर पानी में इमिडाक्लोप्रिड या 2-3 ग्राम प्रति 5 लीटर पानी में थायोमेथोक्सम का छिड़काव करें। कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट की आधी मात्रा यानी 1.5 किलोग्राम प्रति पौधा, फरवरी में प्रयोग करें। नवरोपित बागों की सिंचाई करें और बागों की निराई-गुड़ाई तथा सफाई का कार्य सुनिश्चित करें।


आंवला: उत्तरी भारत में आंवला के फलों की तुड़ाई जनवरी-फरवरी माह तक जारी रहती है। इस दौरान फलों से लदे वृक्षों को बांस-बल्ली से सहारा देने की व्यवस्था करनी चाहिए ताकि शाखाएं टूटने से बच सकें। साथ ही, बिक्री की उचित व्यवस्था करें। चूंकि इस दौरान फलों का विकास भी होता है, इसलिए सिंचाई की समुचित व्यवस्था भी होनी चाहिए, लेकिन ध्यान रखें कि तुड़ाई से 15 दिन पहले सिंचाई रोक दी जानी चाहिए ताकि फल समय से तैयार हो सकें। सिंचाई की सुविधा वाले क्षेत्रों में फरवरी माह के दूसरे पखवाड़े से पौध रोपण का कार्य शुरू किया जा सकता है, जो मार्च तक जारी रखा जा सकता है।

शीत ऋतु में पाले से बचाव के लिए गंधक के अम्ल (0.1 प्रतिशत) का छिड़काव पूरे वृक्ष पर किया जाए और यदि आवश्यक हो तो इसे दोहराया भी जा सकता है। फरवरी में फूल आने का समय होता है। इस समय सिंचाई न करें। आंवला के बाग में गुड़ाई करें और थाले बनाएं। एक वर्ष के आंवला के पौधे को 10 किलोग्राम गोबर/कंपोस्ट खाद, 100 ग्राम नाइट्रोजन, 50 ग्राम फॉस्फेट, और 75 ग्राम पोटाश देना चाहिए। 10 वर्ष या उससे अधिक आयु के पौधों के लिए ये मात्रा बढ़कर 100 किलोग्राम गोबर/कंपोस्ट खाद, 1 किलोग्राम नाइट्रोजन, 500 ग्राम फॉस्फेट, और 750 ग्राम पोटाश हो जाती है। फास्फोरस की
पूरी मात्रा और नाइट्रोजन तथा पोटाश की आधी मात्रा का प्रयोग जनवरी माह से करें। बागों
की निराई-गुड़ाई और सफाई का कार्य 
करें।


बेल: सामान्यतः, फरवरी में बेल में पुष्पन की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। इस अवधि में बेल के थालों की सफ़ाई कर उसे खरपतवार से मुक्त रखें। हालाँकि अर्धशुष्क वर्षा आधारित क्षेत्रों में फल फरवरी माह के अंत से तोड़ने योग्य हो जाते हैं। जब फलों का रंग गहरे हरे रंग से बदल कर पीला हरा होने लगे तब
फलों की तुड़ाई 2 सें.मी. डंठल के साथ करनी चाहिए। तोड़ते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि फल ज़मीन पर न गिरें, अन्यथा फलों की त्वचा प्रभावित हो जाती है और भंडारण के समय इन प्रभावित भागों से सड़न आरंभ हो जाती है।


कटहल: यदि दिसंबर में खाद एवं उर्वरक न दिए गए हों तो जनवरी में यह कार्य पूर्ण करें। छोटे पौधों की पाले से रक्षा के उपाय करें। फरवरी के अंत में मिली बग के प्रकोप से बचने के लिए पेड़ों पर आम की भाँति पॉलीथीन की पट्टी लगाएँ।


फालसा: उत्तरी भारत में फालसे में जनवरी में गहन काट-छाँट करनी चाहिए। काट-छाँट के बाद कटे भागों पर बोर्डो लेप लगाएँ। पौधों को उपयुक्त मात्रा में गोबर की खाद और उर्वरक दें।


लोकाट: जिन क्षेत्रों में सिंचाई की समुचित व्यवस्था हो, उन क्षेत्रों में वसंत के आगमन के साथ ही पौध रोपण का कार्य फरवरी माह के दूसरे पखवाड़े से प्रारंभ किया जा सकता है, जो मार्च तक जारी रखा जा सकता है। एक मीटर गहरे और एक मीटर व्यास के गड्ढे की खुदाई का कार्य वास्तविक वृक्षारोपण से कम से कम एक महीने पहले किया जाना चाहिए। जिन क्षेत्रों में दीमक का प्रकोप हो, वहाँ क्लोरोपाइरीफॉस 10 मि.ली. प्रति गड्ढे की दर से प्रयोग किया जाना चाहिए। प्रति पौध 25-30 किग्रा अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद को दिया जाना चाहिए। इस माह के दौरान, शील्ड अथवा 'टी' कलिकायन विधि द्वारा तीन माह पुरानी शाखा से कलिका लेने पर पौध-प्रवर्धन में अपेक्षित सफलता मिलती है। उत्तरी भारत के कुछ स्थानों पर जनवरी माह तक लोकाट में फूल आते हैं। फलों के सेट
होने के बाद 15 दिनों के अंतराल पर सिंचाई की जानी चाहिए ताकि फलों का विकास हो सके। फरवरी माह में नाइट्रोजन उर्वरक की आधी खुराक को दिया जा सकता है ताकि फलों की अभिवृद्धि हो सके। यदि फल मक्खी का प्रकोप हो तो कीटनाशक इमिडाक्लोप्रिड (0.5 मि.ली./ली.) का छिड़काव फरवरी माह में 15 दिनों के अंतराल पर दो बार किया जा सकता है।


शीतोष्ण फल: शीतोष्णवर्गीय फलों के बाग लगाने का सही समय जनवरी है। यदि किसी कारणवश
दिसंबर में छंटनी न कर पाए हों तो जनवरी में इन फलवृक्षों की छंटाई अवश्य करें। छंटाई,
सधाई प्रणाली को ध्यान में रखकर करनी चाहिए। कटे भाग पर चौबटिया लेप (सिंदूर: कॉपर कार्बोनेट: अलसी का तेल ::1:1:1.25) लगा देना चाहिए। दो प्रतिशत डोरमेंट तेल (सर्वो बागान छिड़काव तेल, हिंदुस्तान पेट्रोलियम छिड़काव तेल) का प्रयोग सैनजोस स्केल और चिप्पड़ी की रोकथाम के लिए किया जा सकता है। बागों की निराई-गुड़ाई एवं सफ़ाई का कार्य करें।

फलदार व छोटे पौधों में गोबर की खाद तथा फॉस्फोरसयुक्त उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए। कीटों एवं रोगों की रोकथाम के लिए यदि दिसंबर में कोई छिड़काव न कर पाए हों तो जनवरी के प्रथम सप्ताह में यह कार्य संपूर्ण करें। बागों में जनवरी में उर्वरक देना भी न भूलें।


स्ट्रॉबेरी: जनवरी में स्ट्रॉबेरी के खेत में निराई-गुड़ाई करें। यदि पलवार न बिछाई गई हो, तो पुआल
या पॉलीथीन जैसी वांछित पलवार का प्रयोग करें। फलों की उच्च गुणवत्ता प्राप्त करने के लिए फरवरी के प्रारंभ में जिब्रेलिक अम्ल (75 पी.पी.एम.) का छिड़काव करें और समय पर सिंचाई सुनिश्चित करें। पत्तियों पर धब्बे दिखाई देने पर डाइथेन-एम-45 (2 ग्राम प्रति लीटर पानी) या बाविस्टिन (1 ग्राम प्रति लीटर पानी) का छिड़काव करें। पहाड़ी क्षेत्रों में किसान स्ट्रॉबेरी का प्रयोग मुख्य रूप से नए पौधे तैयार करने के लिए करते हैं, अतः यदि फरवरी के अंत में पौधों पर फूल आ रहे हों, तो उन्हें तुरंत हटा दें।
हालाँकि, मैदानी क्षेत्रों में इस तरह की कार्रवाई की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यहाँ फरवरी में स्ट्रॉबेरी की फसल तैयार हो जाती है। इसे तोड़कर 250 ग्राम के पैनेट में पैक करके बाजार भेजने की व्यवस्था करें।


सिट्रस (खट्टे फल): जनवरी में एक-दो बार सिंचाई करें और पाले से बचाने के सभी उपाय करें। पौधों का रोपण फरवरी से मार्च तक किया जा सकता है। रोपण से लगभग एक माह पूर्व खेत में 1 घन मीटर आकार के गड्ढे खोदें। गड्ढों में 20-25 किलोग्राम गोबर की खाद और 1 किलोग्राम सुपर फॉस्फेट मिलाएं। दीमक के नियंत्रण के लिए क्लोरोपाइरीफॉस या नीम की खली का उपयोग करें। गड्ढों की आपसी दूरी 6-8 मीटर रखें। खाद डालने के बाद गड्ढों में सिंचाई करें ताकि मिट्टी अच्छी तरह बैठ जाए। मूलवृंत तैयार करने के लिए बीजों को पॉलीथीन बैग में बोएं, हर बैग में दो से तीन बीज डालें। इस द्विमासिकी में प्रति पौध 400 ग्राम नाइट्रोजन, 200 ग्राम फॉस्फोरस और 400 ग्राम पोटाश का प्रयोग 50 किलोग्राम गोबर की खाद के साथ करें, एवं हल्की सिंचाई करें। बागों की निराई-गुड़ाई और सफाई का कार्य भी सुनिश्चित करें। फरवरी में फूल आने से कुछ दिनों पहले सिंचाई न करें, अन्यथा फूल झड़ सकते हैं। यदि फूलों या फलों में अधिक गिरावट हो तो 2, 4-डी की 10 ग्राम मात्रा का प्रति 100 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। फलों के बढ़ने के समय पर्याप्त नमी बनाए रखें। नए पौधे तैयार करने के लिए फरवरी के अंत में कलिकायन (बडिंग) करें। यह समय कांट-छांट के लिए भी उपयुक्त है। पौधों की तने की अच्छी वृद्धि के लिए भूमि से 50-60 सें.मी. ऊंचाई तक की समीपस्थ शाखाओं
को हटा दें। कांट-छांट के बाद कटे भागों पर बोर्डो लेप का प्रयोग करें। इन उपायों से पौधों की अच्छी वृद्धि और बाग की उत्पादकता सुनिश्चित की जा सकती है।


अनार: अनार के पौधे वेज ग्राफ्टिंग द्वारा जनवरी-फरवरी माह में तैयार किए जा सकते हैं, जिसमें 90 प्रतिशत सफलता मिलती है। यदि पौधों को जनवरी में सुषुप्तावस्था में रखा गया हो, तो 15 दिनों के अंतराल पर बोर्डो मिश्रण और कॉपर ऑक्सीक्लोराइड अथवा ब्रोंपोल का छिड़काव करें। सिंचाई की सुविधा हो तो फरवरी में नए बागों की स्थापना की जा सकती है। पौधों को रोपण से पहले 2.5 ग्राम प्रति लीटर की दर से कॉपर ऑक्सीक्लोराइड का छिड़काव करना आवश्यक है। किशोर पौधों (1-3 वर्ष आयु) के लिए उर्वरकों को नई वृद्धि के अनुसार तीन भागों में विभाजित कर जनवरी, जून और सितंबर में दें। मृग बहार की फसल लेने पर, जनवरी में फलों की तुड़ाई कर बाजार भेजने की व्यवस्था करें। तुड़ाई के बाद, मध्यम से गहरी छंटाई कर रोगग्रस्त, टूटी और आपस में उलझी शाखाओं को हटाएं। मोटे तनों के कटे सिरों को 10 प्रतिशत बोर्डो लेप से लिपाई करें और छंटाई के बाद उसी दिन 1 प्रतिशत बोर्डो मिश्रण का छिड़काव करें। हस्त बहार की फसल में, फलों से लदी शाखाओं को सहारा दें। फलों की वृद्धि के लिए मोनो पोटैशियम फॉस्फेट (0:52:34) का 5-6 ग्राम प्रति लीटर की दर से 15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें। मैंगनीज सल्फेट का छिड़काव भी समान मात्रा में करें। फल मक्खी के प्रकोप से बचने के लिए प्रति हेक्टेयर 12 मैकफेल ट्रैप या पानी की बोतलों में टोरोला यीस्ट/बैक्ट्रोसेरा डॉर्सैलिस ल्यूर लगाएं और 15-20 दिनों के अंतराल पर ल्यूर को बदलें।


बेर: बेर में चूर्णी फफूंदी रोग से बचाव के लिए फरवरी में 0.2 प्रतिशत केराथेन का छिड़काव करें और 15 दिनों के अंतराल पर इसे दोहराएं। फरवरी के अंत में बेर के पौधे लगाने का उपयुक्त समय है। इस माह में अगेती किस्मों के फल पकने लगते हैं। फलों की तुड़ाई सुबह या संध्या काल में करें ताकि उनकी गुणवत्ता बनी रहे। तुड़ाई के बाद फलों को उनके रंग और आकार के आधार पर छांटकर श्रेणीकृत करें। छंटाई उपरांत फलों को कपड़े की चादरों, जूट के बोरों, नायलॉन की जालीदार थैलियों,
बांस की टोकरियों, लकड़ी या गत्ते के डिब्बों में रखकर बाजार भेजा जा सकता है। इसके अतिरिक्त, बागों की निराई-गुड़ाई और सफाई का कार्य सुनिश्चित करें।


खजूर: जनवरी-फरवरी माह में खजूर के बागों में कई महत्वपूर्ण कार्य किए जाते हैं, जिनमें कटाई-छंटाई, उर्वरकों का प्रयोग और परागण प्रमुख हैं। खजूर के पौधे एकबीजपत्रीय और एकल तना होने के कारण शाखित नहीं होते, इसलिए व्याधिग्रस्त, सूखी, पुरानी और क्षतिग्रस्त पत्तियों को सर्दियों में हटा देना चाहिए। फल गुच्छों से सटी पत्तियों के डंठलों से कांटे निकालना आवश्यक है, ताकि परागण, फल
गुच्छों की छंटाई, डंठल मोड़ना, रसायनों का छिड़काव, थैलियां लगाना और फलों की तुड़ाई आसानी से हो सकें। पत्तियों को जितना संभव हो सके, मुख्य तने के समीप से हटाना चाहिए ताकि तने की सतह चिकनी बनी रहे। अच्छे उत्पादन के लिए फूल आने से तीन सप्ताह पहले फॉस्फोरस (0.5 किग्रा) और पोटाश (0.5 किग्रा) की पूरी मात्रा तथा नाइट्रोजन (0.75 किग्रा) की आधी मात्रा को दिया जाना चाहिए। यह कार्य जनवरी-फरवरी माह में किया जाता है। इसके बाद सिंचाई की जानी चाहिए। खजूर में नर और मादा पुष्पक्रम अलग-अलग पौधों पर आते हैं, इसलिए अच्छे उत्पादन के लिए कृत्रिम परागण किया जाता है। ताज़े और पूर्ण रूप से खुले नर पुष्पक्रमों को अखबार या पॉलीथीन की चादर पर झाड़कर एकत्रित किया जाता है। मादा पुष्पक्रमों को परागकणों में डुबोए गए रुई के फाहों से दो-तीन दिनों तक लगातार प्रातःकाल परागित किया जाता है; या नर पुष्पक्रमों की लड़ियों को काटकर खुले मादा पुष्पक्रम के बीच उल्टा करके हल्के से बांध दिया जाता है, इससे परागकण धीरे-धीरे गिरते रहते हैं। जनवरी-फरवरी माह में लेसर डेट मोथ कीट के लार्वा परागकणों को खाकर नुकसान
पहुंचा सकते हैं, इसलिए इनकी निगरानी और नियंत्रण करना आवश्यक है।

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